चीन और पाकिस्तान का खतरनाक खेल

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काबुल पर कब्जे के बाद अफगानिस्तान का पूरी तरह कंट्रोल तालिबान के हाथ में आ गया है। जहां तमाम देश काबुल में फंसे अपने नागरिकों को निकालने में जुटे हैं वहीं चीन ने तालिबान से दोस्ती का ऐलान कर दिया है। रूस ने भी तालिबान को मान्यता देने के संकेत दिए हैं। तालिबान के कब्जे को अभी अधिक वक्त नहीं हुआ है, फिर भी चीन और रूस उसे मान्यता देने के लिए इतने उतावले क्यों हो रहे हैं?

असल में, तालिबान को अफगानिस्तान की सत्ता में लाने के पीछे चीन और पाकिस्तान की मिलीभगत है। हमें याद रखना होगा कि 10 एक दिन पहले तालिबान नेता मुल्ला बारादर जब एक डेलिगेशन लेकर चीन गए थे तो विदेश मंत्री वांग यी उनसे मिले थे। वांग यी ने तब कहा कि तालिबान शांति, रीडिवेलपमेंट और रीकंस्ट्रक्शन का एक सिंबल है। यह चौंकाने वाला बयान था क्योंकि इससे पहले किसी ने भी तालिबान को शांति दूत नहीं कहा था। तालिबान को लेकर चीन का रवैया किसी सिद्धांत पर आधारित नहीं है। वह मौकापरस्ती कर रहा है। चीन के ऐसा करने की वजह यह है कि शिनच्यांग में उइगुरों के साथ जो दुर्व्यवहार हुआ है, उससे तालिबान काफी खफा है। तालिबान सुन्नी संगठन है और शिनच्यांग सुन्नी बहुल क्षेत्र। इस लिहाज से उनमें एक भाईचारा है। शिनच्यांग में आजादी के लिए उइगुर लड़ाके आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन उनका ठिकाना पूर्वोत्तर अफगानिस्तान का बदकशान शहर में है। चीन ने तालिबान से यह आश्वासन लिया है, वह चीन के विरोधियों के साथ सहयोग नहीं करेगा।

उधर, पाकिस्तान का रुख क्या है, इसे वहां के प्रधानमंत्री इमरान खान के बयान से समझा जा सकता है। उन्होंने कहा है कि तालिबान ने अफगानिस्तान में गुलामी की जंजीरें तोड़ दी हैं। इससे पहले वह ओसामा बिन लादेन को शहीद बता चुके हैं। अफगानिस्तान को लेकर वैश्विक समुदाय का रवैया भी ठीक नहीं है। दुनिया ने अफगानियों को तालिबान के रहमोकरम पर छोड़ दिया है। सच तो यह है कि अफगानियों के साथ एक क्रूर मजाक हुआ है, उनके साथ धोखा हुआ है। अफगानिस्तान में आज जो हालात हैं, उसके लिए अमेरिका सबसे ज्यादा दोषी है। उसने अपनी सेना वापस बुलाने के लिए पहले तो तालिबान से बातचीत शुरू की और फिर अचानक अफगानिस्तान से निकलने का फैसला कर लिया। नौबत यहां तक आ गई कि अमेरिका ने तालिबान से अपील की है कि आप हमारे लोगों के साथ कुछ मत कीजिए। दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क तालिबान से अपील कर रहा है तो इसका अपना ही एक मतलब है।

रूस ने अभी तालिबान को मान्यता देने पर साफ-साफ कुछ नहीं कहा है। उसका एक सैन्य अड्डा है ताजिकिस्तान में। उज्बेकिस्तान से उसके बहुत पुराने संबंध हैं। वह सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करता था। रूस की कोशिश है कि तालिबान वहां कोई खुराफात न करे। अफगानिस्तान के मामले में भारत अपने हित देखकर कोई फैसला करेगा। हमारी कोई सीमा अफगानिस्तान से नहीं लगती। हमने तालिबान के खिलाफ हमेशा कड़ा रुख अपनाया है। वहां हमारे हित हैं और हमने काफी इन्फ्रास्ट्रक्चर भी डिवेलप किया है। भारत को यह भी आशंका है कि तालिबान की मदद से पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में कोई खुराफात न करे। जहां तक मुझे लगता है कि हमने तालिबान को यह संकेत दिया है कि आप अगर हमारे हित के खिलाफ काम नहीं करेंगे तो हम आपके हितों को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे। लेकिन भारत की ओर से तालिबान को मान्यता देने का सवाल ही पैदा नहीं होता। तालिबान 2.O यानी जिसे नया तालिबान कहा जा रहा है, वह अगर रुख को थोड़ा सा भी नरम कर ले तो भारत को उससे बात करने में कोई दिक्कत नहीं होगी। हम तालिबान की बातों से सहमत नहीं हैं, लेकिन उससे बातचीत करने में कोई हर्ज नहीं है।

तालिबान ने इधर कहा है कि वह भारत के खिलाफ कुछ नहीं करेगा। लेकिन तालिबान पर भरोसा करने से बड़ी कोई गलती नहीं हो सकती। अगर भेड़िया, भेड़ की खाल ओढ़ ले तो वह भेड़ नहीं बन जाएगा, रहेगा वह भेड़िया ही। तालिबान यह दावा कर रहा है कि वह बदल गया है। हालांकि, जहां-जहां उसका कब्जा है, वहां उसने वही पुराने काम किए। वहां फतवा जारी किया, वहां इस्लामिक कानून लागू किए, वहां कहा कि 12 साल से अधिक उम्र की लड़कियों को हमारे लड़ाके अपने साथ लेकर जा सकते हैं। बदकशान में तालिबान ने एक महिला का कत्ल कर दिया क्योंकि उन्होंने नकाब नहीं पहना था। तालिबान विद्रोही घर-घर जा रहे हैं। उनके पास लिस्ट बनी हुई है कि कौन लोग सरकार के साथ थे। यह सब देखकर तो लगता है कि यह पुराना तालिबान ही है। इसमें कोई बदलाव नहीं आया है।

तालिबान आज दुनिया से वही कह रहा है, जो दुनिया सुनना चाहती है। मुझे लगता है कि सत्ता में आने के बाद वह अपना मुखौटा हटा देगा। लेकिन अगर वाकई उसमें कोई बदलाव आया है तो यह भारत सहित दुनिया के लिए अच्छी खबर होगी। इसके बावजूद भारत को इस मामले में लापरवाह नहीं होना चाहिए। मेरा यह भी मानना है कि अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबान के आने की कीमत पाकिस्तान को भी चुकानी पड़ेगी। पाकिस्तान दोहरा खेल खेलने में माहिर है। उसने अमेरिका से अल कायदा और तालिबान से लड़ने के नाम पर खूब पैसा लिया और तालिबान को समर्थन भी देता रहा। इस बारे में तालिबान के पाकिस्तान में कभी राजदूत रहे मुल्ला जाइफ ने भी चेताया था। वह मुल्ला उमर के साथ तालिबान के संस्थापकों में शामिल थे।

उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा कि पाकिस्तान एक दुष्ट मुल्क है। उस पर जब दबाव था, तब उसने कई तालिबान नेताओं को पकड़कर अमेरिका के हवाले कर दिया। पाकिस्तान ने तालिबान को दूसरे तरीकों से भी तंग किया। इसलिए पाकिस्तान को कभी तालिबान माफ नहीं करेगा। अभी तालिबान सबको आश्वासन देकर सत्ता में आना चाहता है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि वह पाकिस्तान की कठपुतली बनेगा। हिलेरी क्लिंटन ने एक बार कहा था कि जो लोग आस्तीन में सांप पालते हैं, उनका हश्र अच्छा नहीं होता। पाकिस्तान को यह बात याद रखनी चाहिए।

विष्णु प्रकाश
(लेखक पूर्व राजनयिक हैं, अक्षय शुक्ला से बातचीत के ये अंश उनके निजी विचार हैं)

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