लैटिन अमेरिकी देश चिली ने दुनिया की लोकतांत्रिक शक्तियों के सामने एक नई मिसाल पेश की है। बीते रविवार को वहां हुए जनमत संग्रह में 78 फीसदी लोगों ने ‘हां’ में वोट देते हुए यह पक्का कर दिया कि देश का संविधान फिर से लिखा जाएगा। इसके अलावा जो दूसरी चीज उन्होंने सुनिश्चित की वह यह कि नया संविधान लिखने वाले सारे के सारे लोग वयस्क मताधिकार से चुने जाएंगे। संसद से लेकर सेना तक सत्ता के मौजूदा ढांचे को कोई प्रतिनिधित्व इस संविधान सभा में नहीं मिलेगा। अगले साल 11 अप्रैल को देश के वोटर एक बार फिर मतदान करके 155 लोगों को चुनेंगे जिन पर अगले नौ महीने में देश के लिए नया संविधान बनाने की जिम्मेदारी होगी। जरूरी हुआ तो इस संविधान सभा को अपना कार्यकाल एक बार तीन महीने के लिए बढ़ाने का अधिकार होगा। इसके बाद 2022 में इस नए संविधान पर एक बार फिर जनमत संग्रह होगा। जनमत संग्रह के पीछे बहरहाल, बड़ा सवाल यह है कि आखिर वह कौन सी चीज है जिसने अच्छी-भली चल रही सरकार को संविधान बदलने के मुद्दे पर जनमत संग्रह कराने को मजबूर किया। दुनिया की हर सरकार को जो चीज सबसे ज्यादा प्यारी होती है वह है यथास्थिति। जिस संविधान की बदौलत सरकार चल रही है, सत्ता मिली हुई है, उसे बदलने के मसले पर बेवजह जनमत संग्रह करवा दे, इतना बेवकूफ तो कोई सत्ताधीश नहीं होता। चिली के मौजूदा राष्ट्रपति सेबेस्टियन पिनेरा ने भी मजबूरी में ही यह फैसला किया।
उन्हें मजबूर किया चिली के आम नागरिकों के जबर्दस्त विरोध प्रदर्शनों ने। इन प्रदर्शनों का सिलसिला पिछले साल राजधानी सैंटियागो में मेट्रो का किराया बढ़ाए जाने जैसे मामूली सवाल पर शुरू हुआ था, लेकिन इसमें अन्य गंभीर मुद्दे तेजी से जुड़ते चले गए। ये वे मुद्दे थे जो चिलीवासियों को लंबे समय से मथते आ रहे थे, लेकिन उन्हें बाहर आने का उपयुक्त मौका नहीं मिल रहा था। ऐसा सबसे बड़ा मुद्दा था चिली के समाज में लगातार बढ़ती विषमता का। पिछले दो दशकों में चिली ने आर्थिक मोर्चे पर अच्छी तरक्की की। प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से वह दक्षिण अमेरिका का सबसे अमीर देश है। लेकिन यह अमीरी समाज से अभाव, गरीबी और लाचारी दूर करने के बजाय यह सब बढ़ाने वाली ही साबित हुई। देशवासियों का एक बड़ा हिस्सा शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहा है। इसलिए आंदोलन के जरिये सैंटियागो के लोग इस सवाल तक पहुंचे कि आखिर मेट्रो का किराया बढ़ना उनके लिए इतनी बड़ी बात क्यों है? क्यों जीवन की सारी सहूलियतें उनकी पहुंच से दूर बनी हुई हैं? इन्हीं सवालों ने आंदोलन को इस बुनियादी समझ की ओर मोड़ा कि शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और पेंशन में निजी क्षेत्र का बढ़ता दखल आम देशवासियों के हितों के खिलाफ है। इसी का अगला चरण थी यह घोषणा कि ऐसी जनविरोधी नीतियों के मूल में वह संविधान है जो जनरल ऑगस्टो पिनोशे के सैन्य शासन की देन है। हालांकि इसमें समय-समय पर संशोधन होते रहे हैं, लेकिन वे नाकाफी हैं। इसीलिए देश को नया संविधान मिलना चाहिए।
इस मांग से लैस आंदोलन को सैंटियागो से निकल कर पूरे देश में फैलते देर नहीं लगी। फैलने के साथ ही यह ज्यादा सघन भी होने लगा। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब बड़ी संख्या में देश के तमाम हिस्सों में लोग सड़कों पर निकल कर विरोध प्रदर्शन नहीं करते। पुलिस ने इसे दबाने की कोशिश की, लेकिन इससे विरोध और तेज हो गया। आखिर नवंबर 2019 में राष्ट्रपति ने आंदोलनकारियों के सामने झुकते हुए जनमत संग्रह कराने की घोषणा की। यह होना था अप्रैल में, लेकिन कोरोना की वजह से इसे आगे खिसकाकर अक्टूबर तक लाना पड़ा। आखिरकार यह हुआ और इसने देश के अजेंडे को नई दिशा दी। उल्लेखनीय है कि वामपंथी रुझान वाले अजेंडे के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों के मेल से जुड़े अनूठे प्रयोगों का चिली में लंबा इतिहास रहा है। सत्तर के दशक की शुरुआत में सल्वाडोर अलेंडे चिली के राष्ट्रपति थे। वह लैटिन अमेरिकी देशों में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार का नेतृत्व करने वाले पहले मार्क्सवादी नेता थे। पर 1973 में सीआईए समर्थित सैन्य विद्रोह के जरिये उनका तख्ता पलट दिया गया। अलेंडे मारे गए, लोकतांत्रिक शासन खत्म हो गया और जनरल पिनोशे की तानाशाही शुरू हुई जो अगले डेढ़ दशक तक देश पर काबिज रही। राष्ट्रपति अलेंडे की यह गति दुनिया भर में वामपंथी आंदोलन के लिए एक ऐसे सबक के रूप में आई जिसने उसके काडर के बीच लोकतांत्रिक तौर-तरीकों के प्रति संदेह को एक आवश्यकता के रूप में स्थापित कर दिया।
हालांकि खुद चिली के समाज ने राष्ट्रपति अलेंडे की हत्या से उपजी फौजी तानाशाही से लोहा लेने का काम लोकतांत्रिक ढंग से ही किया। इसमें वक्त लगा, पर उसका खात्मा 1988 में करवाए गए जनमत संग्रह के ही जरिए हुआ। 1990 के बाद से चिली में चुनाव होते रहे, सरकारें भी बदलती रहीं, लेकिन संविधान पिनोशे वाला ही बना रहा। पुराने प्रेतों का सवाल स्वाभाविक रूप से आम चिलीवासियों का गुस्सा इस संविधान पर ही फूटा। माना गया कि सरकारों की कथित जनविरोधी नीतियों की जड़ यही है। पर यक्ष प्रश्न यह है कि क्या नया संविधान किसी समाज को पुराने प्रेतों से मुक्ति दिला देता है? पड़ोस के पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे देशों के अनुभव पर गौर करें तो राष्ट्रपति जिया उल हक ने शरीयत कानून के जरिए धार्मिक कट्टरता का जो प्रेत खड़ा किया था, उससे पाकिस्तान अबतक पीछा नहीं छुड़ा पाया है। अफगानिस्तान ने तालिबानी शासन वाले संविधान को 2004 में ही खुदाहाफिज कह दिया था पर महिलाओं के लिए वहां अब भी खुलकर जीना संभव नहीं हो पा रहा। साफ है कि समाज और देश का वास्तविक अजेंडा बदलने की लड़ाई किसी एक चुनाव या जनमत संग्रह से नहीं जीती जाती। इसके लिए नागरिकों के बड़े हिस्से को आंखों की नींद गंवाकर निरंतर जगे रहना पड़ता है।
प्रणव प्रियदर्शी
(लेखक पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)