पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों का फैसला देश के राजनीतिक भविष्य के लिए मील का पत्थर साबित हो सकता है। यह जनादेश सिर्फ तात्कालिक राहत ही नहीं देता बल्कि वर्तमान दशा से बाहर निकलने की धुंधली-सी राह भी दिखाता है। इस राह को पहचानने के लिए हमें ‘कौन जीता’ और ‘कौन हारा’ की जगह यह पूछना होगा ‘क्या जीता’ और ‘क्या हारा’?
इन चुनावों में लोकतंत्र का माथा ऊंचा भले ही ना हुआ हो लेकिन घमंड का सिर नीचा जरूर हुआ। घमंड यह कि हमने जिस किले पर उंगली रख दी उसे जब चाहे फतह करके दिखाएंगे। घमंड यह कि बिना बंगाली संस्कृति में रचे बसे वहां के मतदाता का मत जीता जा सकता है। घमंड यह कि धनबल, सुरक्षा बल, मीडिया बल और एकतरफा चुनाव आयोग के बल पर चुनाव जीता जा सकता है।
घमंड यह कि बिना स्थानीय नेतृत्व और चेहरे के, सिर्फ मोदी जी के जादू के सहारे जनादेश हासिल किया जा सकता है। इस घमंड को बंगाल की जनता ने चकनाचूर कर दिया। सिर्फ इससे लोकतांत्रिक मर्यादा स्थापित नहीं हो जाएगी। चुनाव की जीत के बाद तृणमूल के कार्यकर्ताओं द्वारा हिंसा हमें याद दिलाती है कि लोकतांत्रिक मर्यादा स्थापित करना अभी बाकी है। इस चुनाव ने बस इस प्रयास का रास्ता खोल दिया है।
इन चुनावों में सेकुलरवाद नहीं जीता, लेकिन नंगी सांप्रदायिकता की सफलता की एक सीमा जरूर बंधी है। बंगाल में यह साबित हो गया कि मुसलमानों के खिलाफ डर और नफरत फैलाकर सभी हिंदुओं को गोलबंद नहीं किया जा सकता। उधर असम और बंगाल में कांग्रेस द्वारा मुस्लिम सांप्रदायिक पार्टियों के साथ गठबंधन की असफलता ने तथाकथित सेकुलर पार्टियों को भी सबक सिखाया है। लेकिन इस चुनाव में, खासतौर पर असम और बंगाल में, हिंदू मुस्लिम द्वेष का जो खेल खेला गया है उसका खामियाजा देश बहुत समय तक भुगतेगा।
इस चुनाव मे सरकारों का कामकाज एकमात्र मुद्दा नहीं था, लेकिन हवाई मुद्दों की हवा निकली है। अगर बीजेपी बंगाल का चुनाव जीत जाती तो देश भर में प्रचार किया जाता कि जनता अपनी आर्थिक स्थिति से खुश है और इस महामारी में मोदी सरकार के कामकाज से देश संतुष्ट है। यह दावा भी किया जाता कि नागरिकता कानून को जन समर्थन हासिल है और हिंदी पट्टी के बाहर किसानों ने तीन किसान विरोधी कानूनों को मान्यता दे दी है।
चुनाव परिणाम ने इस मिथ्या प्रचार का मुंह बंद कर दिया है। फिलहाल यह भी नहीं कहा जा सकता कि इन सब ज्वलंत मुद्दों पर जनता ने मोदी सरकार के खिलाफ जनादेश दिया है। बस इतना कहा जा सकता है कि यह चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े गए और बीजेपी द्वारा राष्ट्रवाद के नाम पर पूरे देश को एक रंग में रंगने की कोशिश सफल नहीं हुई। उधर बिना जमीन पर काम किए बिल्ली के भागो छींका फूटने का इंतजार कर रही कांग्रेस भी पूरी तरह खारिज हो गई।
आज महामारी से लड़ रहे देश के नागरिक अपने दम पर बेड, वैक्सीन और ऑक्सीजन को ढूंढते-ढूंढते अपने नेताओं और सरकारों को भी ढूंढ रहे हैं। एक बार फिर लॉकडाउन का शिकार हुए मजदूर इस मजबूरी में कोई रास्ता ढूंढ रहे हैं। कोई छह महीने से सड़कों पर पड़े किसान अपनी सरकार से आने वाले उस फोन का इंतजार कर रहे हैं। देश एक विकल्प को खोज रहा है।
योगेंद्र यादव
(लेखक सामाजिक संगठन से जुड़े हैं ये उनके निजी विचार हैं)