तमाम साक्ष्य बताते हैं कि बढ़ता तापमान भारत के आर्थिक विकास को खतरे में डाल देगा। ये संभावित खतरे हो सकते हैं, कृषि उत्पादकता गिरना, सार्वजनिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव, श्रम उत्पादकता गिरना और समुद्र स्तर में वृद्धि। ये मिलकर विनाशकारी प्रभाव पैदा करेंगे, जैसा महामारी की दूसरी लहर के दौरान तूफ़ान ताऊते और यास की लैंडिंग से स्पष्ट हुआ है।
फिलहाल मौजूदा ग्लोबल वार्मिंग की दर जब 1 डिग्री सेल्सियस है, तब ही देश नुकसानों से जूझ रहा है। पिछले एक दशक में भारत में बाढ़ से 3 अरब डॉलर की आर्थिक क्षति हुई है यानी बाढ़ से वैश्विक आर्थिक नुकसान का 10% हिस्सा। जलवायु परिवर्तन की मानवीय और आर्थिक लागत आने वाले वर्षों में निश्चित रूप से बढ़ेगी ही।
वैश्विक थिंक टैंक ओडीआई द्वारा की गई समीक्षा, ‘द कॉस्ट्स ऑफ क्लाइमेट चेंज इन इंडिया’ का विश्लेषण बताता है कि कैसे बढ़ते तापमान विभिन्न तरीकों से भारत के आर्थिक विकास को खतरे में डालेंगे। पेपर में उद्धृत अध्ययन में पाया गया कि ग्लोबल वार्मिंग की मौजूदा लागतों के बिना भारत की जीडीपी आज लगभग 25% अधिक होती। अध्ययन में पाया गया है कि अगर दुनिया का तापमान 3 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है तो वर्ष 2100 में भारत की जीडीपी 90% तक कम हो जाएगी।
इन अनुमानित लागतों को निम्न कार्बन विकास का अनुसरण करने से कम कर सकते हैं और इससे अन्य आर्थिक लाभ भी होंगे। यह अगले दशक में भारत की नीति, निवेश और कूटनीतिक विकल्पों पर निर्भर है। वर्तमान में राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान ‘2°C संगत’ रखने वाले जी20 देशों में इकलौते देश के रूप में, भारत पहले ही जलवायु परिवर्तन को घटाने के लिए अपने हिस्से का काम उचित रूप से पूरा कर रहा है। लेकिन एक ज़्यादा कार्बन-कुशल और लचीले मार्ग का अनुसरण करने से भारत अपने विकास लाभों को जलवायु-प्रमाणित करने में सक्षम हो सकेगा। भारत के कम प्रति व्यक्ति उत्सर्जन और निम्न-मध्यम आय वाले देश के स्टेटस को देखते हुए, इसे ऐसा करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन की आवश्यकता हो सकती है।
भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है, फिर भी देश में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत से काफ़ी कम है। भारतीयों को उस जलवायु संकट को घटाने का खर्च नहीं उठाना चाहिए, जिसकी जड़ वे नहीं हैं। जी7 शिखर सम्मेलन ने उच्च आय वाले देशों को, जिनके कंधों पर जलवायु परिवर्तन का ऐतिहासिक ज़िम्मा है, आगे बढ़कर अपनी ज़िम्मेदारी निभाने का एक मौका दिया, लेकिन वो भी ख़ास उम्मीदें नहीं दे पाए और बैठक जलवायु परिवर्तन पर लगाम कसने की नज़र से निरर्थक ही साबित हुई। अब उम्मीद है कि जलवायु वित्त अंतर को पाटने और त्वरित प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए स्पष्ट प्रतिबद्धताओं से सीओपी 26 (क्लाईमेट चेंज कॉन्फ्रेंस) की अगुवाई में विश्वास और महत्वाकांक्षा को ज़रूर बढ़ावा मिलेगा।
(ये लेखिका (आरती खोसला) के अपने विचार हैं)