कौन-सी कामना है, कौन सी जिजीविषा

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गांव जाता था, तो मां जैसी ही ताई, चाची दीदी और बुआएं भी लगती थी। मैं हैरान होता था कि आखिर वह कौन सी चीज है, जो इन लोगों को एक -दूसरे में विलीन कर रही है। फिर मुझे यह दिखा। दुनिया का उजाला सबसे पहले इस ग्वोर्याड़ू (गौशाला के लिए गढ़वाली शब्द) में उतरता है। दुनिया की सबसे पहली चहलक दमी यहीं पर होती है। यहीं पर सबसे पहला शब्द सुनाई देता है, सबसे पहली आवाज और सबसे पहला संवाद। स्त्री का यह अपने पशुओं से संवाद है। उसकी हथेलियों के स्पर्श से वे कुनमुनाती गायें, बछड़ें, बैल और भैंस हैं। सब एक साथ हैं और खुश हैं। गौशाला की खिडक़ी पर रखा दीप मानो सुबह में डूबने के लिए आखिरी झपझपी ले रहा है। अब इन आवाजों में चूल्हे पर लकडिय़ों के चटखने की, केतली में पानी खौलने और गिलास में चाय उड़ेलने की आवाजें आ गई हैं। चाय सुडक़ने की कुछ आवाजें आने लगी हैं। कुछ चर्रमर्र जैसी। हो सकता है वे बिस्कुट हों या रात की रोटी। एक – एक कर आकृतियां प्रकट हो रही हैं। देहाती स्त्री के आसपास उसके अपने इकट्ठा हो रहे हैं।

सूरज दमकता हुआ आ गया है। हलचल बढ़ गई है। गौशाला की सफाई की जा चुकी है। गोबर हटा दिया गया है। नाश्ता तैयार है। धारे से पानी लाया जा चुका है। मुंह-हाथ धुला जा चुका है। पितरों को प्रणाम किया जा चुका है। सुबह का दीपक हो सकता है पुरुष जलाए। स्त्री को अब हम जाता हुआ देख सकते हैं। उसकी पीठ पर घिल्डा या स्वाल्टा है। हाथ में दरांती। सिर पर साफा बंधा है और धोती का पल्लू रखने की बजाय कमर पर ही मोडक़र बांध दिया गया है। पहाड़ी स्त्री के श्रम की छाया में ही हम चलते रह सकते हैं। घास काटने या खेत में गुड़ाई करने के लिए स्त्री आगे बढ़ गई है। हो सकता है कि कुछ समय बाद पुरुष भी जाए। हल-बैल लेकर। उसके स्वाल्टे या घिल्डे में गोबर है, जो खेत में डाला जाना है। लौटते हुए उसमें घास होगी। खेतों पर हम झुकी हुई आकृतियां देखते हैं। निरंतर कुछ न कुछ करती हुई स्त्रियां। इस पृथ्वी को बीज और अन्न से भरती हुई। पानी से भरती हुई। अपने स्पर्श से प्रकृति को जीवंत करती हुई। गुड़ाई, निराई, बुवाई, रोपाई। कितनी सारी क्रियाएं हैं, कितने सारे काम पहाड़ का कृषक समाज एक अनथक श्रम का समाज है। उसकी धुरी है स्त्री।

बिट्टों और खतरनाक फिसलनों में नुकीली चमकीली और हरेपन से भरी हुई घास की डालियों को वे दरांती से सरपट काटती जा रही हैं, कुछ जमीन पर गट्ठर बनाती हैं, तो कुछ फुर्ती से अपनी पीठ पर बंधे स्वाल्टे में घास भरती जाती हैं। यह भी जैसे पृथ्वी को पीठ पर धारण करने का बिंब है। और वे दरांतियां, वे चमकती चपल धारें, उतना ही काटतीं, जितनी जरूरत। कुछ ऐसे कि नई घास उग आए अगले ही दिन। ऐसी चमत्कारी और विलक्षण कटाई। सहसा एक स्त्री कंठ से कोई गीत फूटता है। चिडिय़ां पंख झाड़ती हुई पेड़ों से निकलती हैं और दूसरे पेड़ों की शाखाओं पर बैठ जाती हैं। जिन्हें वे कण सुर ज़्यादा पास बुलाते हैं, वे हिम्मत से घास के आसपास मंडराने लगती हैं। जैसे तितलियां। उन गीतों में मिठास और विकलता है। उनमें तड़प है और कुछ ऐसी बातें हैं, जिनके अर्थ हम कभी नहीं जान पाएंगें। वे उन गीतों के टेक हैं, वहां पर सिर्फ स्त्रियां ही पहुंच सकती हैं। पहाड़ में पानी की थरथराहट इस आवाज से बनती-बिगड़ती रहती है। धरती के नीचे-नीचे मिट्टी और खनिज से घुला-मिला वो इन गीतों से मानो कोई अलक्षित रासायनिक प्रक्रिया करता हुआ फूटता है।

घर लौटने का वक्त है। दिन का खाना। भात बनेगा, मांड पसारा जाएगा, आंगन के पास के खेत से कोई हरी सब्जी निकालकर बनाई जाएगी। कुछ नहीं तो आलू-प्याज का झोल। या राजमा की दाल। चटनी होगी। थोड़ा दही। दोपहर का कोई वक्त होगा, जब चूल्हे से गर्म पानी के बड़े पतीले को उतारकर एक अस्थाई से गुसलखाने ले जाया जाएगा। दिनभर की थकान को उतारने वाला एक अद्भुत स्नान। गेहूं फैलाया जाएगा। दालें सुखाई जाएंगीं। कुछ मोल- तोल होंगे। कुछ सिलाई-बुनाई की जा सकती है। बाल संवारे जा सकते हैं। कुछ गप जरूर होगी, कुछ मुलाकातें और कुछ योजनाएं, कुछ तैयारियां अगले दिनों के लिए। नींद से झपकती-बुझती आंखों में सहसा हंसी कौंध जाएगी। सूरज भी शर्माता हुआ आसमान को शाम से भरता हुआ निकल जाएगा। रात की पहली रोशनी एक केड़े (भीमल वृक्ष की सुखाई टहनियां) की होगी, एक ज्वलनशील लकड़ी। और उसे हाथों में थामे स्त्री हर कमरे में दिए रोशन करेगी। रसोई में एक बार फिर धुएं और चहल-पहल का वक्त होगा। बहुत सारे काम इस काम के निपटने के बाद होंगे। कुछ याद आएंगे, कुछ रह जाएंगें, वे कल होंगे

रात जब वो सोने जाती हैं, तो उसकी धोती की किनारियों में उजाले की लकीरें चमक रही होती हैं। एक सुबह उस वक्त ही हो जाती है। कुछ घंटों बाद उसकी नींद में दाखिल होती है घंटियों की टुनटुन की आवाज। ये उसके पशु हैं। वो कभी चौंकते हुए और हड़बड़ाकर नहीं उठती। वो ऐसे उठती है, जैसे पतीली से धुआं उठता है।धीरे-धीरे आसपास फैलता हुआ। ठिठुरन को उष्मा से भरता हुआ। वह उठकर पशु को चारा पानी देने जाती है। एक छोटी सी एल्यूमिनियम की बाल्टी ले जाती है। उसके पास हो सकता है एक भैंस हो या एक गाय हो। और उसका कोई बछड़ा हो। वह बछड़ा खोलती है और उसे मां के थनों के पास ले जाती है। हम पहले ही बता चुके हैं कि दुनिया का ये सबसे पहला उजाला है। इस गौशाला में। आप इसमें टटोल टटोल कर ही दाखिल हो सकते हैं। इन मानवीय सरसराहटों पर तभी एकजोर का झपट्टा आ गिरता है। धुएं से और अंधेरे से और शायद नींद से और कुछ थकान से झपझपाई आंखें बाघ (तेंदुआ) को नहीं देख पाती हैं, जो घात लगाए किवाड़ के पास कहीं दुबका बैठा था।

दूध की बाल्टी बहुत हल्की आवाज़ के साथ गिर जाती है। पशुओं के गलों में बंधी घंटियों की हाहाकारी टुनटुन में वो चीख भी, जो इस बहुत बड़े धोखे और जीवन के ऐसे अचानक नष्ट हो जाने के छल से भयंकर घुमड़ गई है, वो वहीं कहीं दब जाती हैं। एक गुमसुम सुबह की पस्त लकीरें मिट्टी और गोबर और दूध और ख़ून से लिथड़ी हुई उस लकीर से मिल जाती हैं, जो गौशाला से बहती हुई आती है। अपना दिन-रात, अपनी नींद, अपना श्रम, अपना सब कुछ अपने परिवार के सृजन में लगाती हुई एक पहाड़ी स्त्री अपना जीवन इस तरह गंवा भी देती है। इतने हादसे उसके जीवन में छिपे हुए हैं। ये कहां पता चलता है। इतने कांटे उसके आसपास हैं, उसके पैर बिंधे हुए हैं, वो उन्हें खुरचती रहती है, कांटे निकालती रहती है, लहू की परवाह नहीं करती है और न बीमारी की। आखिर वह कौन-सी अटूट अदम्य जिद है, जो उसे लगातार घर से खेत और खेत से घर लाती ले जाती रहती है। ये आखिर कौन-सी कामना है कौन-सी जिजीविषा? गांव की एक साधारण किसान औरत का एक दिन का हिसाब- किताब समझना मुश्किल है।

शिवप्रसाद जोशी
(लेखक जाने-माने लेखक हैं ये उनके निजी विचार हैं )

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