देश में आरक्षण और जातिवार जनगणना को लेकर बहस नए सिरे से तेज हो रही है। ऐसे में जो असल में पिछड़ी जातियां हैं, उन्हें चौकन्ना हो जाना चाहिए योंकि जो कथित बड़ी जातियां हैं, वे केंद्र और राज्य सरकारों की ओबीसी लिस्ट में घुस आई हैं। वे उस आरक्षण का लाभ ले रही हैं, जो आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों को मिलना चाहिए। ओबीसी की राज्यों और केंद्र सरकारों की लिस्ट में अपर कास्ट की घुसपैठ रातोरात नहीं हुई। मंडल कमिशन ने सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की थी। वीपी सिंह सरकार ने जब वह सिफारिश लागू की, लगभग तभी से ओबीसी लिस्ट में अपर कास्ट की घुसपैठ शुरू हो गई। उदाहरण के लिए, कर्नाटक में आरक्षण के लिए राज्य की जो ओबीसी लिस्ट है, उसमें आर्थिक रूप से पिछड़ी कई जातियां हैं। इनमें गौड़ सारस्वत ब्राह्मण भी हैं। गौड़ सारस्वत ब्राह्मण दरअसल सारस्वत ब्राह्मणों का हिस्सा हैं। मेरी मां बताती थीं कि समाज में सारस्वत ब्राह्मणों का स्थान इतना ऊंचा था कि उन्हें पूजने लायक माना जाता था। तमिलनाडु और केरल में अन्य पिछड़ा वर्ग की लिस्ट देखें तो पता चलता है कि सौराष्ट्र ब्राह्मण जैसी ऊंची जातियां उनमें शामिल हैं। जाति व्यवस्था में अपने दर्जे के चलते ब्राह्मणों का जीवन दूसरों के मुकाबले आसान रहा।
व्यवसाय के रूप में उनका काम था धर्म-कर्म की चीजें पढऩापढ़ाना और पूजा-पाठ वगैरह करना- कराना। इसके बदले में उन्हें खाने-पीने की चीजें, कपड़े और दूसरे उपहार दिए जाते थे। रहने का इंतजाम भी या तो मंदिर में या उसके आसपास कर दिया जाता था। मंडल कमिशन के मुताबिक, ओबीसी उन्हें माना जाता है, जो सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हों। ऐसे में यह एक पहेली ही है कि ब्राह्मण कब, कैसे और यों सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हो गए। राज्यों कीओबीसी लिस्ट में राजपूत भी हैं। उत्तराखंड में लोधी राजपूत और पंजाब में कश्यप राजपूत। राजपूत का मतलब है राजा का बेटा। एक जाति के रूप में देखें तो राजपूतों ने कई सदियों तक भारत के तमाम इलाकों पर राज किया। जाति क्रम में भी योद्धा और शासक के रूप में उनका दर्जा हमेशा सबसे ऊंचा रहा। ऐसे में राज करने वाली जाति को ‘पिछड़ा’ कैसे कहा जा सकता है? महाराष्ट्र में खुद को छत्रपति शिवाजी का वंशज बताने वाला मराठा समुदायओबीसी लिस्ट में आना चाहता है। राज्यों की ओबीसी लिस्ट में कई ऐसी जातियां भी हैं, जिनके पास अच्छी- खासी जमीन है। राजस्थान में पटेल समुदाय ऐसा ही है। जाट समुदाय भी इसी तरह का है। सबसे बड़ी विडंबना है कथित नीची जातियों के लिए। इनमें न केवल मराठा, बल्कि दलित भी शामिल हैं।
खुद को लड़ाकों में बदलकर उन्होंने अपने ऐतिहासिक पिछड़ेपन से पीछा छुड़ाया और शासक भी बने। मसलन, सिंधिया और गायकवाड़। फिर किसने हिमाकत की इन जातियों को ओबीसी बताने की? ब्राह्मणों, क्षत्रियों और अच्छी-खासी जमीन रखने वाली जातियों के कारण ही कई जातियां पिछड़ गईं। इन ऊंची जातियों ने जो सामाजिक व्यवस्था बनाई और जो रीति-रिवाज थोपे, उनके चलते असल ओबीसी के हाथों से मौके छिन गए। इन असलओबीसी का जीवन छोटे-मोटे धंधों में फंसकर रह गया। ऊंची जातियों ने सामाजिक, आर्थिक और पेशागत सीमाएं तय कीं और इन असल ओबीसी को उन्हें पार नहीं करने दिया गया। एक समय किसी नीची मानी जाने वाली जाति में जन्म लेना अपने आप में अभिशाप था। लेकिन आधुनिक भारत में कई जातियां मांग कर रही हैं कि उन्हें ‘पिछड़ा’ मान लिया जाए। वे दरअसल आरक्षण का फायदा लेना चाहती हैं। सामाजिक दायरे में वे ऊंची जाति के दर्जे का फायदा ले रही हैं और आर्थिक दायरे में आरक्षण के लाभ उठाना चाहती हैं। इस साल 10 अगस्त को संसद के दोनों सदनों ने 127वें संशोधन विधेयक को एकमत से पास किया। इस बिल ने राज्यों का एक अधिकार बहाल किया। अब वे तय कर सकते हैं कि ओबीसी की उनकी लिस्ट में कौन जाति रहेगी, कौन नहीं। इससे एक नया बवाल शुरू होगा।
ऊंची जातियां जोर लगाएंगी कि उन्हें ओबीसी लिस्ट में रख दिया जाए। नेता वोटों के लिए उनकी बात मान लेंगे। ओबीसी की लिस्ट राज्य के स्तर पर तैयार होनी ही चाहिए योंकि हो सकता है कि कोई जाति किसी राज्य में पिछड़ी हो और दूसरे राज्य में न हो। लेकिन लिस्ट बनाने के लिए राज्य स्तर पर स्वतंत्र संस्थाओं की जरूरत है, जो राजनेताओं के प्रभाव में न हों। साथ ही, क्रीमी लेयर वालों को भी लिस्ट में नहीं रखना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग भी यही है। वैसे भी जातियों की गणना का मसला काफी जटिल हो गया है। 1901 की जनगणना में बताया गया कि भारत में एक हजार 646 जातियां थीं। 1931 की जनगणना होने तक यह संख्या ढाई गुना बढ़ गई। बताया गया कि देश में 4 हजार 147 जातियां हैं। 1931 की जनगणना के बाद से देश में जातियों की संख्या एक हजार गुना बढ़ चुकी है। देश में सामाजिक, आर्थिक और जातिगत जनगणना पहली बार 2011 में कराई गई।
उस जनगणना में जातियों, उप-जातियों, सरनेम, गोत्र, कुल आदि के रूप में 46 लाख कैटिगरी सामने आईं। उस जनगणना में जातियों के बारे में जो ब्योरे दर्ज किए गए, उनमें आठ करोड़ से ज्यादा गलतियां हैं। राज्य सरकारों ने करीब पौने सात करोड़ गलतियां ठीक कर दी हैं, लेकिन अब भी डेढ़ करोड़ जस की तस हैं। हमें लेकिन यह नहीं पता कि सरकारी अधिकारियों ने कुछ ब्योरों को किस आधार पर गलत माना और किस आधार पर उन्हें दुरुस्त किया।इस साल 10 अगस्त को आखिरकार सरकार ने 2011 की जनगणना को अशुद्ध करार दिया। उसने वादा किया है कि हर दस साल पर होने वाली जनगणना जब पूरी हो जाएगी, तो उसके बाद एक और जातिवार जनगणना कराई जाएगी। भारत सरकार को लेकिन यह पूछना चाहिए कि जातिवार जनगणना की जरूरत या है? और या उसमें पक्षपात नहीं होगा?
नीरज कौशल
(लेखिका अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में सोशल पॉलिसी की प्रोफेसर हैं, ये उनके निजी विचार हैं)