केवल रस्म अदायगी ना हो

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आज देश लोकतंत्र का प्रतिष्ठा पर्व गणतंत्र दिवस मना रहा है। किसी भी भारतीय के लिए यह गौरव का विषय हो सकता है कि हमने 26 जनवरी 1950 को स्वनिर्मित तंत्र को व्यावहारिक रूप प्रदान किया। वास्तव में, जबतक किसी देश का तंत्र अपना नहीं होता, वह स्वतंत्र नहीं माना जा सकता। भ्रम प्रचारित कर 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में स्थापित करने का प्रयास अवश्य किया गया, यदि व्यवस्थागत तथा विधिगत स्थिति का अवलोकन करते है तो पूर्ण स्वतंत्रता पर्व के रूप में 26 जनवरी को माना जा सकता है।

यह भी एक कुट सत्य है कि संविधान लिखने तथा उसको लागू करने की पटकथा, उस साम्राज्यवादी शक्ति द्वारा ही लिखी गई थी, जिसके आधार पर स्वतंत्र होने का बोध आम आदमी को कराया जाता है। इस तथ्य को छिपाया जाता है कि संविधान सभा का निर्माण ब्रिटिश साम्रज्य की अधिसूचना के अधार पर उसके द्वारा ही किया गया था।

ब्रिटिश शासन को यह अधिकार था कि संविधान सभा के किसी सदस्य को रखे तथा किस अनुच्छेद को स्वीकार करे या अस्वीकार। संविधान सभा को भंग करने का अधिकार भी अंग्रेजों के पास सुरक्षित था।

यह कैसी विडम्बना है कि जो संस्था स्वयं स्वतंत्र नहीं, वह स्वतंत्रता का अभिलेख तैयार कर रही थी? संविधान सभा पर औपनिवेशिक शक्ति का इतना अधिक प्रभाव था कि जब संविधान सभा की प्रथम बैठक 9 दिसम्बर 1946 को संसद के केन्द्रीय कक्ष में आयोजित की गई, तो उसके अस्थायी अद्यक्ष डॉ. सच्चिदानंद सिंह को बनाया गया था, उन्होंने अपने सम्पूर्ण भाषण में यूरोप के विचारकों तथा राजनीतिक सिद्धांतकारों की प्रशंसा की, दुखद यह रहा कि उनके पास भारतीय संस्कृति तथा असंख्य वीर-वीरांगनाओं के लिए एक भी शब्द नहीं था। भाषण की समाप्ति अंग्रेजों को प्रसन्न करने के लिए बाइबल के वचन से की गई। संविधान सभा के उद्दश्यों को स्पष्ट करते हुए नेहरू ने भी एक भाषण दिय़ा था, जिसमें ब्रिटिश शासन के प्रति कृतज्ञता भाव थे, लेकिन किसी भी क्रांतिकारी के लिए एक भी सम्मानजक शब्द नहीं था।

भाषण की यही विषयवस्तु 14-15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को दिए गए भाषण में दिखाई देती है। ट्रिस्ट विद डेस्टिनी कहे जाने वाले इस भाषण में कहीं भी भारत के गौरवशाली अतीत का न तो कोई चित्र था, और न की क्रान्तिकारियों का उल्लेख। 26 जनवरी 1950 को दिल्ली में भव्य आयोजन हुआ, इसमें ब्रिटिश साम्राजवाशी शक्ति के प्रतिनिधियों को तो आमंत्रित किया गया लेकिन भारत माता के लिए आत्मोत्सर्ग करने वाले किसी बलिदानी परिवार को नहीं बुलाया गया। यह कैसी आजादी और कैसा गणतंत्र दिवस जिसमें देश की आन, बान, शान तथा मान के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने वालों के लिए सम्मानजनक शब्द नहीं, उनका स्मरण नहीं। जो लोग सत्तासीन हुए, वे यह भी भूल गए कि पहली बार 31 दिसम्बर 1931 को लाहौर में रावी नदी के पूर्वी तट पर बादशाह मस्जिद तथा गुरुद्वारा दारा साहिब की छांव में पूर्ण स्वराज का संकल्प लिया गया था और कहा गया था कि जनवरी के अंतिम रविवार यानी 26 जनवरी 1932 को देश भर में स्वतंत्रता दिवस मनाया जाएगा।

विभाजन के लिए सीमा रेखा तय करने वाले सर रेडिक्लिफ ने स्वीकार किया था कि लाहौर किसी भी मूल्य पर पाकिस्तान का हिस्सा नहीं होना चाहिए था क्योंकि विभाजन के निर्धारण मानकों अनुसार उनको भारत का ही अंग होना चाहिए था। मैंने उसे पाकिस्तान को देकर भारत के साथ अन्याय किया, भारतीय नेताओं ने मेरे निर्णय पर सहमति प्रकट कर दी थी। आज उसी रावी रोड़ पर स्थित इकबाल पार्क जिसे पहले मिंटो पार्क कहा जाता था, वहां मीनार-ए-पाकिस्तान खड़ी है।

उस स्थान पर 23 मार्च को पाकिस्तान दिवस मनाया जाता है, जिसमें भारत को नेस्तानाबूद करने की कसमें खाई जाती हैं। जो शासक वर्ग अपने ही इतिहास को सुपक्षित नहीं रख सका, वह राष्ट्र की अस्मिता को कैसे सुरक्षित रखेगा? संवतंत्रता किसी बंधन से मुक्त होने का नाम नहीं है, वह दायित्वों का एक ऐसा भाव है जो सबको आत्मानुशासन से करना चाहिए।

आत्मचिंतन तथा आत्मवलोकन स्वतंत्रता के आश्य को सफल करते हैं। इसलिए निरंतर यह चेतना जागृत रहनी चाहिए कि हम देश और समाज के लिए क्या कर सकते हैं? यदि हम पर्यावरण सुरक्षा के लिए जनचेतना का कार्य करते हैं तो यही भी एक देश देवा है, यदि हम केवल यह सोच लें कि कागज खराब नहीं करेंगे, प्रयोग किए कागज को पुन प्रयोग योग्य बनाएंगे तो अनेक प्रकार से देश सेवा हो सकती है। विदेशों से आयात को कम कर सकेंगे, जिससे हमारे राष्ट्रीय मुद्रा कोष पर कम दबाव होगा, वृक्षों की रक्षा होगी तो पर्यावरण शुद्ध होगा। मेरा यह मानना है कि कोई भी राष्ट्रीय दिवस हो भले ही उसके प्रति हमारी सहमति या असहमि हो, इसके बाद भी उनकी रस्म अदायगी नहीं होनी चाहिए, उसको एक संकल्प दिवस के रूप में मनाएं।

संकल्प लें कि इस वर्ष हम देश-समाज के लिए क्या-क्या कर सकते हैं? जातिवाद का जहर धर्म का जड़वाद कैसे समाप्त हो, इसके लिए व्यावहारिक कार्य होना चाहिए। भारत एक अति प्राचीन राष्ट्र है, उसका कण-कण त्याग, तप, ज्ञान की सुरभी से महक रहा है, उसको अपने अंतकरण में अनुभूत करें और ऐसे राष्ट्र के निर्माण में लगा जाएं, जहां किसी प्रकार का कोई भेद-भाव न हो, विकास के द्वार सबके लिए खुले हों और सब अपने को सम्मानित नागरीक अनुभव करें।

जय हिन्द

डॉ. अतुल कृष्ण
राष्ट्रीय संयोजक, उन्मुक्त भारत

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