कांग्रेस का मोदी-विरोधी तेवर

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कांग्रेस का मोदी-विरोध कैसे-कैसे रंग दिखा रहा है? कश्मीर के मुद्दे पर पहले तो कई विपक्षी दल कांग्रेस का साथ नहीं दे रहे हैं। वे मौन हैं और कुछ सिर्फ मानव अधिकारों के हनन की बात कर रहे हैं लेकिन अब जयराम रमेश, शशि थरुर और अभिषेक सिंघवी जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने खुले-आम पार्टी की समग्र नीति पर प्रश्न चिन्ह लगा दिए हैं। इनके पहले जर्नादन द्विवेदी और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस की कश्मीर-नीति पर अपनी असहमति जाहिर की थी।

कांग्रेस में इस तरह के मतभेद कांग्रेस-अध्यक्ष की नियुक्ति के बारे में भी प्रकट हो रहे हैं। कुल मिलाकर इस प्रपंच को हम कांग्रेस का स्वाभाविक आतंरिक लोकतंत्र नहीं कह सकते हैं। इस मां-बेटा पार्टी में यह खुले-आम असहमति या बगावत तब से प्रकट होने लगी है, जब से 2019 के चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह से हारी है। यह असंभव नहीं कि कई प्रांतीय नेताओं की तरह अब कुछ केंद्रीय नेता भी भाजपा-प्रवेश के लिए अपनी राह बना रहे हों।

दूसरे शब्दों में कांग्रेस नेताविहीन तो है ही, वह नीतिविहीन भी होती जा रही है। यदि कांग्रेस में दम होता तो वह मोदी सरकार को नोटबंदी, रफाल सौदा और जीएसटी पर घेर सकती थी। गिरती हुई अर्थ-व्यवस्था को भी मुद्दा बना सकती थी लेकिन उसने अपनी साख इतनी गिरा ली है कि उसकी सही बातें भी जनता के गले नहीं उतरतीं हैं। वे तर्क-संगत नहीं लगती हैं।

उसका कारण क्या है ? यह कारण ही जयराम रमेश, थरुर और सिंघवी ने खोज निकाला है। उनका यह कहना बिल्कुल सही है कि मोदी की उचित नीतियों को भी गलत बताना और उन पर सदा दुर्वासा-दृष्टि ताने रखना- यही कारण है, जिसके चलते कांग्रेस की बातों पर से लोगों का भरोसा उठ गया है। उज्जवला योजना, स्वच्छता अभियान, बालाकोट, वीआईपी कल्चर- विरोध, धारा 370 और 35 ए का खात्मा, वित्तीय सुधार की ताजा घोषणा जैसे कामों का स्वागत करने की बजाय कांग्रेस ने उनकी खिल्ली उड़ाई है।

कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ और पढ़े-लिखे नेताओं ने इस तेवर को रद्द किया है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं द्वारा खुले-आम ऐसा रवैया अपनाना भारतीय लोकतंत्र के उत्तम स्वास्थ्य का परिचायक है। यह हमें उस नेहरु-युग की याद दिलाता है, जब सेठ गोविंददास नेहरु की हिंदी नीति और महावीर त्यागी उनकी चीन-नीति की खुले-आम आलोचना करते थे। यह लोकतांत्रिक धारा अकेली कांग्रेस में ही नहीं, सभी पार्टियों में प्रबल होनी चाहिए, खास तौर से हमारी प्रांतीय पार्टियों में, जो प्रायवेट लिमिटेड कंपनियां बन चुकी हैं।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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