कच्चा तेल सस्ता : खतरे भी कम नहीं

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नई दिल्ली। कच्चा तेल। इन दिनों कोरोना के साथ-साथ हर जगह इसी की चर्चा है। कच्चे तेल के दाम में 30 पर्सेंट से ज्यादा की गिरावट। यह लाइन सोमवार से आप न जाने कितनी बार पढ़-सुन चुके होंगे। कच्चे तेल ने शेयर बाजार में ऐतिहासिक गिरावट ला दी। पहली बार सेंसेस 1942 अंक गिरा। कच्चे तेल के दाम में गिरावट भारतीय कन्ज्यूमर्स के लिए अच्छी है, लेकिन इसकी वजह से डिफ्लेशन(नकारात्मक मुद्रास्फीति) की स्थिति आ सकती है, जो किसी भी इकॉनमी के लिए बड़ा खतरा है। कैसे कच्चा तेल इकॉनमी को गर्त में धकेल सकता है, ये समझेंगे लेकिन उससे पहले समझिए यों यह गिरावट भारत के लिए अच्छी मानी जा रही है। भारत कच्चे तेल की अपनी जरूरत का 80-85 हिस्सा आयात करता है। अगर कच्चे तेल के दाम में 1 डॉलर की कमी आती है तो सालाना भारत 10000 करोड़ रुपये की बचत कर सकता है। ऐसा होने पर महंगाई घटेगी। इंपोर्ट बिल घटने से जो बपचत होगी, उसे सीधे ग्राहकों तक पहुंचाया जा सकता है और कम सब्सिडी से सरकार के बजट को मदद मिलेगी।

दाम में आई कमी को अगर पूरी तरह से ग्राहकों तक ट्रांसफर किया जाए तो उन्हें बहुत फायदा हो सकता है। उनके पास अन्य खर्च के लिए काफई पैसे बचेंगे और इकॉनमी को रफ्तार मिलेगी। कच्चे तेल के दाम में गिरावट से सीधे ग्राहकों को तो फायदा मिलता है, लेकिन इससे गंभीर मुद्रा अवस्फीति की स्थिति पैदा हो सकती है। कीमतें घटने से कंपनियां और ग्राहकों को खरीदारी पर ब्रेक लगाती हैं, जिससे इकॉनमी कमजोर पड़ती है। वहीं केंद्रीय बैंक के लिए इकॉनमी में रफ्तार फूंकने के लिए प्याज दर घटाना भी मुश्किल हो जाता है। तेल कंपनियों के लिए मुश्किल: कच्चे तेल के दाम में ज्यादा गिरावट ऑइल कंपनियों के लिए बड़ा खतरा बन जाती है। जैसा हमने सोमवार को रिलायंस इंडस्ट्रीज और ओएनजीसी के मामले में देखा। एक ही दिन में दोनों कंपनिोयं के शेयर बाजार में बड़ा नमकसान हुआ। आरआईएल के शेयर करीब 13 पर्सेंट गिरे और उसका मार्केट कैप 7 लाख करोड़ रुपये से नीचे चला गया, जो कुछ समय पहले ही 10 लाख करोड़ के पार पहुंचा था।

इससे बाजार का सेंटिमेंट बिगड़ता है, निवेशकों और ग्राहकों पर भी नेगेटिव असर देखने को मिलता है। अच्छा नहीं सस्ता कच्चा तेल: कच्चा तेल किसी भी इकॉनमी के लिए प्रमुख इनपुट का काम करता है। ट्रांसपॉर्ट से लेकर घरों में चूल्हे जलाने तक के काम इसी के जरिए पूरे होते हैं। ऐसे में अगर इनके दाम बहुत ज्यादा घट जाते हैं तो इनसे जुड़ी कंपनियों को नुकसान पहुंचता है और वे इस बिजनस से बाहर निकलने पर भी विचार करने लगती हैं। डिलेशनरी स्पाइरल: बड़े-बड़े इकॉनमिस्ट और केंद्रीय बैंक जैसे डिफ्लेशन की स्थिति को पसंद नहीं करते क्योंकि इसकी टेंडेंसी चक्रीय होती है।

डिफ्लेशन के समय में मांग लगातार घटती जाती है और ग्राहक कीमतों के और घटने का इंतजार करते हैं। इसकी वजह से तैयार माल की खरीद नहीं होती। इससे उत्पादनकर्ता, कंपनियां हतोत्साहित होती हैं और कई बार बिजनस ठप करने पर विचार करती हैं। इसका नतीजा कई बार बेरोजगारी बढऩे के रूप में भी सामने आता है। यानी, डिफ्लेशन की स्थिति किसी भी सूरत में इकॉनमी के लिए अच्छी नहीं। यह खर्च को टालने का काम करती है और केंद्रीय बैंक के लिए इकॉनमी को बूस्ट करने के लिए प्याज दर घटाना भी मुश्किल हो जाता है।

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