आर्थिकी है सबसे बड़ा राजनीतिक संकट!

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केंद्र सरकार के प्रबंधक, जिसमें वित्त मंत्री भी शामिल हैं, लोगों को यह समझाने में लगे हैं कि देश की अर्थव्यवस्था के सामने जो संकट है वह चक्रीय। देश की अर्थव्यवस्था का बुनियादी ढांचा बिल्कुल सही है और इसलिए चिंता करने की कोई बात नहीं है। हो सकता है कि वित्त मंत्री की बात सही हो और उनका समर्थन करने वाले कई आर्थिकी के जानकार भी सही हों। पर फिलहाल यह संकट जितना बड़ा आर्थिकी का है उससे ज्यादा बड़ा राजनीति का है। भाजपा के नेता इस बात को अभी समझ नहीं पा रहे हैं कि विकास दर कम होने, रोजगार घटने, निर्यात कम होने या निवेश नहीं आने का क्या राजनीतिक असर हो रहा है। वे इसे आर्थिकी के नजरिए से देख रहे हैं और छोटे छोटे वित्तीय उपाए किए जा रहे हैं ताकि किसी तरह से हालात को संभाला जा सके।

असल में आर्थिकी का संकट एक बड़े राजनीतिक संकट में बदल रहा है, जिससे निपटना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती होगी। महाराष्ट्र और हरियाणा में जो चुनाव नतीजे आए हैं उन पर राजनीतिक कारणों के साथ साथ आर्थिकी का भी असर रहा। झारखंड में इस समय चुनाव चल रहे हैं और वहां भी मुख्यमंत्री से नाराजगी के साथ साथ लोग काम धंधे, नौकरी आदि की चिंता में हैं। प्याज की महंगाई लोगों को परेशान कर रही है। हालांकि विपक्ष के नेता इसे बड़े राजनीतिक मुद्दे में बदल नहीं पा रहे हैं इसके बावजूद आम लोग इससे प्रभावित हैं और उनका राजनीतिक व्यवहार इससे बदल रहा है।

पिछले दिनों जब उपभोग का एक आंकड़ा आया था तब सरकार ने उसे दबा दिया था। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले 45 साल में पहली बार ऐसा हुआ कि उपभोक्ता खर्च में गिरावट आई। पहले जहां औसतन प्रति व्यक्ति 1501 रुपए मासिक का खर्च होता वहां अब यह खर्च घट कर 1446 रुपए हो गया है। सरकार ने इस आंकड़े को सही नहीं माना और दबा दिया। पर सरकार समर्थक अर्थशास्त्री इसे आगे बढ़ कर इसे गलत ठहराने लगे। उन्होंने कहा कि जब देश की विकास दर औसतन सात फीसदी रही हो और वह भी कई सालों तक तो संभव ही नहीं है कि उपभोग में गिरावट आए।

पर अब ये तमाम अर्थशास्त्री क्या कहेंगे? करीब दो साल से देश की आर्थिक विकास गिर रही है। 2018 के जनवरी-मार्च के 8.1 फीसदी के मुकाबले विकास दर गिर कर 4.5 फीसदी पर आ गई है। लगातार छह तिमाही से विकास दर में गिरावट हो रही है और कम से कम अगली दो तिमाहियों में इसमें सुधार की संभावना नहीं दिख रही है। तभी भारतीय स्टेट बैंक ने चालू वित्त वर्ष के लिए पांच फीसदी की विकास दर का अनुमान जाहिर किया है। सोचें, इस विकास दर में क्या लोगों के उपभोग में गिरावट नहीं आएगी? और जब लोग अपने मासिक जरूरी खर्चों में कटौती करेंगे, उसमें कमी आएगी तो क्या उसका राजनीतिक असर नहीं होगा?

ध्यान रहे नोटबंदी एक राजनीतिक फैसला था, जिसका राजनीतिक फायदा भी भाजपा को मिला। इसी तरह जीएसटी को आनन-फानन में आधी रात का संसद सत्र बुला कर लागू करना भी एक राजनीतिक फैसला था। उसका भी फायदा भाजपा ने लिया। पर अब इन दोनों फैसलों का असली असर आम लोगों पर होने लगा है। अब इनके राजनीतिक नुकसान का समय शुरू हुआ है। लोगों के सामने रोजगार का संकट है। काम धंधे बंद हो रहे हैं। निवेश नहीं आ रहा है। नए काम नहीं शुरू हो रहे हैं। कारोबार सुगमता के तमाम दावों के बावजूद लोगों के लिए नए कारोबार करना मुश्किल हो रहा है। बैंकिंग की हालत ऐसी खराब है, जैसी पहले कभी नहीं रही। सरकार को भारतीय रिजर्व बैंक के आरक्षित कोष से एक लाख 76 हजार करोड़ रुपए लेने पड़े हैं। इसके अलावा मुनाफे वाली कंपनियों को बेच कर एक लाख करोड़ रुपए से ज्यादा जुटाए जा रहे हैं। इसके बावजूद सरकार चाहती है कि बैंकिंग को ठीक करने के लिए रिजर्व बैंक कुछ और उपाय करे। हालांकि ऐसा कोई उपाय संकट को और बढ़ाएगा। दूसरी ओर राज्यों की सरकारों का आरोप है कि केंद्र सरकार जीएसटी में उनके हिस्से का पैसा नहीं दे रही है। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने कहा कि उनके राज्य में वित्तीय आपातकाल लागू करने की स्थिति आ गई है। ऐसी स्थिति कमोबेश सभी राज्यों में है।

इससे आर्थिकी को संभालने की सरकार की क्षमता पर सवालिया निशान लग गया है और इसे आम लोग भी समझने लगे हैं। विपक्ष चाहता तो या मजबूत होता तो इसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनाया जा सकता था। पर कमजोर विपक्ष के बावजूद यह मुद्दा घर घर तक पहुंच रहा है। सरकार के लिए सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि उसकी अपनी सहयोगी पार्टियां इसे लेकर मुखर हो रही हैं। राज्यसभा में अकाली दल के सांसद ने इसे लेकर सरकार से सवाल पूछा। भाजपा के अपने समझदार सांसदों ने इस पर सवाल उठाए। भाजपा द्वारा मनोनीत सांसद ने राज्यसभा में सरकार से पूछा कि आखिर क्यों वह स्थिति नहीं संभाल पा रही है।

एक तरफ तो देश के सबसे बड़े उद्योगपति की कंपनी की संपत्ति लगतार बढ़ने की खबर है। यह खबर है कि अंबानी समूह दस लाख करोड़ रुपए की बाजार पूंजी वाली पहली कंपनी बन गई है तो दूसरी ओर यह खबर है कि आम आदमी के मासिक खर्च में भी गिरावट आ गई। अंबानी समूह तेल से पैसे कमा कर इतना बड़ा हो गया और सरकार अपनी मुनाफे वाली तेल कंपनी बेच रही है और वह निजी समूह को। इन बातों का आम आदमी के सामूहिक अवचेतन पर असर हो रहा है। सरकार ने समय रहते इसे नहीं ठीक किया तो विपक्षी पार्टियों की राजनीति से ज्यादा सरकार की आर्थिक विफलता उसे ले डूबेगी।

शंशाक राय
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निज विचार हैं

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