आठ सीट पर माहौल 2014 जैसा तो नहीं रहा

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साप्रंदायिक ध्रुवीकरण की वजह से बेहद संवेदनशील पश्चिमी यूपी की जिन आठ सीटों पर गुरुवार को वोट पड़ गए वहां पर इस बार ना तो 2014 सरीखे हालात थे। हां मयावती के बयान और उसके बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की यह बजरंग बली की हुंकार ने जरूर हिन्दू-मुस्लिम चुनाव की तरह इसे आखिरी पलों में खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इसके बावजूद केन्द्र की सत्ता पर काबिज भाजपा के लिए परिस्थितियां 5 साल पहले यानी 2014 के आम चुनाव सरीखी बिल्कुल नहीं रही।

इन आठ सीटों पर 2014 के आम चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का माहौल था। उस वक्त चुनाव मुजफ्फरनगर में ध्रुवीकरण का माहौल था। उस वक्त चुनाव मुजफ्फरनगर में दंगे के साये में हो रहे थे। सितंबर 2013 में हुए दंगों का चुनावी माहौल पर भी असर था। इस दर्दनाक घटना में 60 लोगों की मौत हो गई थी और हजारों लोगों को बेघर होना पड़ा था। इस दंगे ने इलाके में जाट-मुस्लिम समीकरण को प्रभावित किया था। इसके अलावा जाटव और गुर्जरों के साथ मुस्लिम समाज के संबंधों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा था। हालांकि इस बार आरएलडी नेता अजित सिंह और उनके बेटे जयंत ने क्षेत्र में सदभावना यात्राएं निकालकर माहौल को सुधारने का प्रयास किया। अगर मायावती व योगी आदित्यनाथ के बयानों को छोड़ दें तो कुछ ऐसा नहीं था जो अगल करे। फिर भी साफ झलक रहा था कि हिन्दू किधर जाएंगे और मुसलमान कहां पर वोट डालने जा रहे हैं?

इसके अलावा बीते चुनाव में यूपी में अखिलेश यादव की सरकार के खिलाफ ऐंटी-इन्म्बैंसी का भी असर था। लेकिन, इस दौरान बीजेपी एक तरह से दोहरी ऐंटी-इन्कम्बैंसी झेल रही थी। केन्द्र और राज्य में उसकी सरकार है, ऐसे में उसे दोनों स्तरों पर लोगों की कुछ नाराजगी जरूर थी। लेकिन चुनाव क्योंकि मोदी के फेवर व मोदी के खिलाफ ही था लिहाजा वोटर ने वोट भी ऐसे ही डाला। वैसे दोनों जगहों पर सरकारें होने से बीजेपी को काम कराने में आसानी हुई है, लेकिन किसानों में गन्ना बकाया को लेकर नाराजगी जरूर थी फिर भी सोच यही रही कि अखिलेश सरकार के मुकाबले भुगतान में तेजी रही। इन सीटों पर भाजपा के लिए केवस संयुक्त विपक्ष की चुनौती मानी जा सकती है।

पिछले बार एसपी-बीएसपी-आरएलडी और कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था। लेकिन इस बार एसपी-बीएसपी और आरएलडी के महागठबंधन के चलते यूपी में बीजेपी को कड़ी चुनौती के दावे किए जा रहे हैं। कांग्रेस इस गठजोड़ का हिस्सा नहीं है, लेकिन यूपी की बेहद कम सीटों पर उसका प्रभाव है। ऐसे में महागठबंधन की ओर से बीजेपी के अलावा मतदाताओं के पास विकल्प रहा। कई सीटों पर बीजेपी को स्थानीय उम्मीदवारों के खिलाफ ऐंटी-इन्कम्बैंसी झलक रही थी, लेकिन सवाल हिन्दू-मुसलमान की तरफ मुड़ने से उसका असर कुछ कम होता नजर आया। 2014 में जब ये चेहरे मैदान में थे तो इनमें से ज्यादातर पहली बार लड़ रहे थे।

लेकिन अब 5 साल तक सांसद रहने के बाद उन्हें ऐंटी-इन्कम्बैंसी का सामना करना था। इस स्थिति को भांपते हुए बीजेपी ने कई जगहों पर टिकट बदले भी है, मोदी के नाम पर पर ही वोट मांगे गए। देखना है वोटर पर कितना असर पड़ेगा? भले ही बीते कुछ दिनों में बसपा-रालोद बीजेपी के नेताओं ने अपने कई भाषणों से ध्रुवीकरण के प्रयास किए हो, लेकिन मुस्लिम और दलित नेताओं ने रणनीतिक तौर पर आखिर तक चुप्पी साधे रखी और ये चुप्पी ही भाजपा के लिए सबसे बड़ी चिंता का कारण है। कुल मिलाकर कैराना मॉडल भाजपा के लिए इसी वजह से चिंताजनक माना जा सकता है कि अगर उपचुनाव जैसा वोट पड़ा तो नतीजे कहीं पलट ना जाएं।

दिनेश कुमार
लेखक पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं

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