असली विजेता तो स्टालिन ही था

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दिमाग का हाल यह है कि जयशंकर प्रसाद और रविशंकर प्रसाद में फर्क नही कर पाते, जसवंत सिंह और यशवंत सिन्हा में भेद नहीं समझ आता, हाफिज सईद और अजहर मसूद दोनों एक से ही लगते हैं। लगता है यही हाल रहा तो अगले पांच साल में गांधी औ गोडसे भी गहुमहु हो जाएंगे। ऐसे में कैसे पहचानें यह फोटो?

वैसे तो तोताराम को जब भी कोई महत्वपूर्ण बात करनी होती है तो पहले हमारे सामने अखबार रखता है और फिर कोई पश्न। लेकिन आज आते ही बिना किसी संदर्भ के एक छोटी सी फोटो हमारे सामने रखते हुए बोला-बता यह कौन है? दोनों आंखों का मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाने के बावजूद अब हालात यह हो गई है कि यदि कोई हमें हमारा ही जवानी का फोटो पहचानने को कह दे तो अकबका जाते है। दिमाग का हाल यह है कि जयशंकर प्रसाद और रविशंकर प्रसाद में फर्क नहीं कर पाते, जसवंत सिंह और यशवंत सिन्हा में भेद नहीं समझ आता, हाफिज सईद और अजहर मसूद दोनों एक से ही लगते है। लगता है यही हाल रहा तो अगले पांच साल में गांधी और गोडसे भी गहुमहु हो जाएंगे।

ऐसे में कैसे पहचानें यह फोटो? जब ध्यान से देखा तो पाया कि आंखों में अलौकिक दृढ़ता, ओठों पर एक गंभीर और शहीदी मुस्कान, कुछ-कुछ राजपूती झलक देती कोनों से तनिक मुड़ी मूंछे और किसी योद्धा के जिरह-बख्तर जैसी जैकेट। हमने कहा-तोताराम, गलता है हमारा कोई वीर योद्धा है जिसे पाकिस्तान सरकार ने हमारी ‘घर में घुसकर मारने’ की धमकियों से डरकर सम्मान छोड़ दिया है। बोला- बस, खा गया न धोखा! अरे, यह अपने नीरव मोदी है। आजकल लन्दन में तशरीफ फरमा रहे हैं। मूछों का रोब ही कुछ ऐसा पड़ रहा है। महानयक अमित जी को फिल्म ‘एकलव्य’ में देखा नहीं अपनी राजस्थानी स्टाइल की दाढ़ी-मूंछों में? एकदम भीष्म पितामह जैसे लग रहे थे। पृथ्वीराज चौहान, महराणा प्रताप, भरतपुर वाले महाराज सूरजमल और अब अपने अभिनंदन। इनके बारे में कुछ न जानने वाला भी इनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो जाता है।

हमने कहा लेकिन तोताराम, राम को तो हमने बिना दाढ़ी-मूछों। कृष्ण क्लीन शेब्ड और कंस के बड़ी-बड़ी मूंछे। सिकंदर भी मूंछें नहीं रखता था। द्वितीय विश्व युद्ध के विजेता ब्रिटेन के चर्चिल, फ्रांस के डगार, अमरीका के आइजनहावर भी क्लीन शेब्ड ही थे। बोला- लेकिन असली विजेता तो मूंछ वाला रूस का स्टालिन ही था जिसने हिटलर को वापिस जर्मनी तक ढौड़ा दिया था। हमने कहा लेकिन 1965 में पाकिस्तान को मात देने वाले शास्त्री जी क्या मूछें रखते थे? बीरता दाढ़ी-मूछों, हथियारों गाली-गलौज, मुहावरेबाजी में नहीं बल्कि वह तो मन में स्थित लोकहित के हिमाद्रि से निरंतर और स्वतः संचारित होने वाली अलकनंदा है। युद्धवीर ही वीर नहीं होते, धर्मवीर और दानवीर भी तो वीर नहीं होते, धर्मवीर और दानवीर भी तो वीर ही होते हैं। गांधी और भगतसिंह की वीरता में मात्र स्वरूप का अंतर है। अभिनन्दन साहस में कारण अभिनंदनीय है; न कि मूंछों के कारण। यह बात और है कि उनकी मूंछें भी बहुत शानदार। बोला-लेकिन एक शब्द ‘बाग्वीर’ भी होता है। हमने कहा- इसी प्रकार के वीरों के ‘बल’ के बारे में ही रामचरित में तुलसी कहते हैं-

लोक के ईछा दंभ बल, काम के केवल नारी। क्रोध के परुष वचन बल मुनिवर कहहिं विचारि।। अर्थात श्रेष्ठ मुनिगण विचार करके कहते हैं कि लोभ को इच्छा और दंभ का बल है, काम को लेकर स्त्री का बल है और क्रोध को कठोर वचनों का बल है। इसीलिए वीरता का स्थायी भाव ‘क्रोध’ नहीं बल्कि ‘उत्सा’ माना गया है। उत्साही निरंतर उत्साहपूर्वक कर्म करता है क्रोधी केवल कठोर बचनों से काम चलाना चाहता है, उसका वही बल है।

रमेश जोशी
लेखक व्यगंकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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