अयोध्या विवाद पर मध्यस्थता!

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अयोध्या का रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद सुप्रीम कोर्ट की मध्यस्थता में किसी सर्वमान्य हल तक पहुंचे, इससे बेहतर भला और क्या उम्मीद की जा सकती है। यह संतोष की बात कि विवाद से जुड़े प्रमुख पक्षकारों से सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड सहित सभी मुस्लिम पक्षकार और प्रमुख हिन्दू पक्षकारों में से निर्मोही अखाड़ा कोर्ट की मध्यस्थता में बातचीत के लिए राजी है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। इस बीच बातचीत के जरिये किसी ऐसे सर्वमान्य फैसले की तरफ बढ़ा जा सके जिसमें हार-जीत जैसी स्थिति ना हो तो तय मानिये बहुधार्मिकता के ताने-बाने वाले देश के सौहार्द और समरसता के लिए अच्छा होगा। अयोध्या मसले पर एक बार फिर बातचीत के लिए होने वाली पहल भी स्वागत योग्य है, लेकिन इसी के साथ लोगों के मन में सवाल भी उठ रहे हैं। ऐसा इसलिए कि सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीकप मिश्रा की तरफ से भी कुछ इसी तरह की पहल हुई थी, भाव यही था कि सब मिलकर बैठें और अदालती हस्तक्षेप की स्थिति ना आने दें। क्योंकि अदालत में फैसले भावना पर नहीं, सुबूतों के आधार पर होते हैं और जाहिर है इसमे एक पक्ष की जीत होती है तो दूसरे के हिस्से में हार होती हैं।

ऐसे संवेदनशील मामलों में फैसला तो हो सकता है लेकिन देश के दो बड़े समुदायों के रिश्तों में एक तरह की खटास आ सकती हैं जो किसी भी लिहाज से उचित नहीं होगा। कोर्ट के उस सुझाव को दोनों प्रमुख पक्षकारों ने ठुकराते हुए तर्क दिया था कि मामला बातचीत से हल हो सकता तो बहुत पहले हल हो गया होता। अब तो कोर्ट का जो फैसला होगा उसे सभी मानेंगे। इससे पहले भी जब बातचीत के जरिये मामला निपटने की स्थिति आई तो वो किसी निर्णय तक पहुंचने से पहले ही स्थिगित हो गई। सरकार, धर्मगुरु, समाजसेवी और प्रभावशाली नेताओं की कोशिशों के ठण्डे बस्ते में जाने का एक लम्बा इतिहास है। इसलिए मौजूदा कोशिश उम्मीद जगाने के साथ ही सवाल भी खड़े करती है। इस मसले पर लगातार एक अनकही कोशिश रही है कि मामला किसी अंतिम मुकाम तक ना पहुंचे।

ना जाने वो कौन-सी ताकतें है जिन्हें अयोध्या विवाद के खिंचते रहने में सुकून मिलता है। हालांकि देश की जनता जानती और पहचानती भी है। सीधे तौर पर इस मसले का तथ्यात्मक विश्लेषण के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय की ओर से निर्णायक पटापेक्ष हो गया था, जिसमें विवादित परिसर की जमीन का सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला विराजमान के बीच बंटवारा किया गया था। फैसला शीशे की तरह साफ और समझ में आने वाला था। पर तीनों पक्षकारों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौत दे दी और अब सबसे बड़ी अदालत में बातचीत से रास्ता तलाशने की अभिलाषा है। यह अभिलाषा मामले को लम्बा खींचने की वजह ना बने, यही उम्मीद की जानी चाहिए।

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