आज तोताराम हाजिऱ हुआ और जैसे टीवी रिपोर्टर सामने वाले के मुंह में माइक घुसेड़ देता है वैसे ही हमारी आंखों के सामने एक बॉलपेन और नोटपैड लहराता हुआ बोला- लिख दे जो मोदी जी से 15 अगस्त के भाषण में सुनना चाहता है। हमने कहा- केवल सुनकर क्या होगा ? कुछ हाथ में आए तो बात बने। भाषण में तो 15 लाख की बात भी लोगों ने सुनी लेकिन मिला क्या ? दूसरे मोटा भाई ने कहा दिया- जुमला था। एक दिन किसी सेठ के पड़ोसी ने मछली बनाई। सेठ को उसकी गंध बहुत पसंद आई । उसने उसे रोज मछली बनाने को कहा। दो दिन बाद वह पड़ोसी मछली खरीदने के लिए पैसे मांगने के लिए आया। सेठ ने अपनी जेब में रुपए खनकाते हुए कहा- सुनी आवाज़? कैसी लगी। पड़ोसी बोला- बहुत अच्छी। सेठ ने कहा- मुझे तेरी मछली की गंध अच्छी लगी और तुझे रुपयों की खनखनाहट।
हिसाब बराबर। सो तूने वोट दिया और मोदी जी बढिय़ा-सा भाषण दे देंगे-हिसाब बराबर। चाहे तो एक कहानी और सुन ले। एक बार सूरदास जी को कोई न्यौता देने आया और कहा- सूरदास जी ज़रूर आना, खीर बनाई है। सूरदास जी ने खीर कभी खाई नहीं,बोले-खीर कैसी होती है? यजमान ने कहा- एकदम बगुले जैसी सफेद। सूरदास जी के लिए तो सब बराबर। पूछा- बगुला कैसा होता है? यजमान ने अपने हाथ से बगुले गर्दन का आकार बनाकर सूरदास जी के हाथ में दे दिया। सूरदास जी ने हाथ को टटोला और बोले- यजमान, हम नहीं आ सकते। यह तो बहुत टेढ़ी है। हमारे गले में फंस गई तो क्या करेंगे। सो सूरदास तो खीर को खाकर ही समझ सकते हैं। शब्दों से नहीं। सो हम तो तब जानें जब वे हमारा पे कमीशन वाला 31 महीने एरियर दे दें। फिर भले ही भाषण दें या नहीं, कोई फर्क नहीं पड़ता।
बोला- हर समय अपने फायदे की ही बात। अरे, हर समय अधिकार-अधिकार। कभी तो अपनी महान संस्कृति के बारे में सोचाकर। यदि तेरे बस का कुछ नहीं है तो नए डार्विन सत्यपाल जी का संसद में दिया भाषण पढ़ ले। उन्होंने खुद को ऋषियों की संतान बताया है और उन पर विश्वास न करने वालों को बन्दर की। अब पता, नहीं हनुमान जी के भक्तों का क्या होगा? लेकिन इसके साथ ही उन्होंने कहा है कि हमारी संस्कृति कर्तव्य की संस्कृति है, मानवाधिकारों की नहीं,कृष्ण भी कहते है- माफलेषुक दाचन। मतलब अधिकार की बात मत कर। हमने कहा- यह बात उन्होंने बिलकुल ठीक कही है। महाभारत का उदाहरण देख लो।
एकलव्य और कर्ण को सवर्णों और क्षत्रियों के साथ शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। अनधिकृत चेष्टा की तो एक का अंगूठा गया और दूसरे को अंतिम क्षण में अपना ज्ञान भूल जाने का श्राप। कौरव-सभा में द्रौपदी के मानवाधिकारों की आर्त पुकार किसी ने नहीं सुनी। यदि हमारी मानवाधिकारों संस्कृति होती तो चीरहरण पर भीष्म चुप क्यों रहते? लेकिन इस तथ्य को ध्यान में रखना कि जब भीष्म जैसे चुप रहते हैं तब कृष्ण ही चीर बढ़ा कर द्रौपदी की लाज बचाते हैं। धर्मराज की चुप्पी से बड़ी थी भीम की दुर्योधन की जांघ तोडऩे और दुश्शासन की छाती का लहू पीने की प्रतिज्ञा। हो सके तो इस संकेत को समझ नहीं तो प्रहलाद के स्वधर्म-पालन के अधिकार के हनन पर खम्भा फाड़कर नृसिंह को प्रकट होते भी देर नहीं लगेगी।
रमेश जोशी
(लेखक वरिष्ठ व्यंगकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)