सेना प्रमुख विपिन रावत के एक बयान पर विपक्ष फिर बिफर गया। दरअसल रावत गुरुवार को एक स्वास्थ्य सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि यदि नेता हमारे शहरों में आगजनी और हिंसा के लिए विश्वविद्यालयों और कॉलेज के छात्रों सहित जनता को उकसाते हैं, तो यह नेतृत्व नहीं है। बेशक जब वह टिप्पणी कर रहे थे तो संशोधित नागरिकता कानून को लेकर हुई हिंसा और आगजनी का संदर्भ रहा होगा। उनके बयान को राजनीतिक मंशा से दिया गया बताते हुए कांग्रेस, माकपा, एआईएमआईएम समेत कई दलों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। इन नेताओं का कहना है कि इससे पहले कभी किसी सैन्य अफसर ने राजनीतिक आंदोलनों पर कोई टिप्पणी नहीं की। लोकतंत्र में देश के भीतर बहुदलीय प्रणाली व्यवस्थसा में समय-समय पर राजनीतिक आंदोलन चले हैं, उसे राजनीतिक ढंग से देखा समझा गया है। ये नेता यह कहने में भी गुरेज नहीं करते कि 31 दिसम्बर को सेना प्रमुख रिटायर हो रहे है, इसलिए वर्तमान में सत्तारूढ़ दल के शीर्ष नेतृत्व के प्रति अपना रूझान दिखाने की गरज से सियासी टिप्पणी की है। हालांकि पद पर रहते उन्हें ऐसी बातों से बचना चाहिए।
इससे तो खुद मोदी सरकार की गरिमा धूमिल हुई है। मिलिट्री सर्विस रूल का हवाला देकर भी अपनी आपत्ति दर्ज करायी गयी। पर मूलभूत सवाल यही है कि क्या देश को हिंसा और आगजनी में झोंकने वाला नेतृत्व चाहिए। क्या कानून की मनचाही व्यवस्था करने वालों को भ्रमित किया जाना चाहिए। हाल की हिंसा और आगजनी में करोड़ों का नुकसानस हुआ और दर्जनभर जानें गयीं, इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा। बीते दो हफ्ते से अफवाहों पर रोक लगाने की गरज से इंटरनेट बार-बार बंद किए जाने की कवायद के चलते आखिर जिनकी रोजी-रोटी प्रभावित हो रही है, उसकी भरपाई नेता करेंगे। नेताओं से सिर्फ सियासत के लिए अपने ही लोगों को गुमराह करने की उम्मीद तो नहीं की जा सकती। ऐसी स्थिति में सेना प्रमुख ने अपनी राय रख दी तो क्या गुनाह कर दिया। आग लगाना तो आसान होता है लेकिन उसके फैसले पर काबू पाना आसान नहीं होता। सीएए को लेकर स्थिति यह है कि दिल्ली जैसे शहर में जो लोग आंदोलन का हिस्सा बन रहे हैं, उन्हें नहीं पता कि हाल के संसद से बहुमत के साथ पारित हुआ बिल वास्तव में क्या कहता है। जिनके बहकाने में लोग जुट रहे हैं, उन्हें बताया जा रहा है कि संशोधित कानून देश के अल्पसंख्यकों की नागरिकता छीन लेगा।
कांग्रेसी जैसी सत्ता की अनुभवी पार्टी इस तरह के अपप्रचार में लगी हुई है। यह कैसी विसंगति है कि जिस पुलिस बल की भूमिका अपराध रोकने के लिए होती है, उसे जुमे के दिन लोगों पर नजर रखने के लिए मुस्तैद किया जाता है। हैरत इस पर भी है कि जो लोग अफवाह फैलाने के काम में जुटे हुए हैं या फिर गलतफहमी की चिंगारी को हवा दे रहे हैं उन्हें पता है वे क्या कर रहे हैं और इसका आखिर में अंजाम क्या हो सकता हैए इसका अंदाजा भी है। फिर भी तात्कालिक सियासी फायदे के लिए देश के भीतर अमन-चैन और भाईचारे को दांव पर लगाने से भी कुछ लोग बाज नहीं आ रहे। शायद यही वजह खास है जब सेना प्रमुख ने मौजूदा परिदृश्य पर बेबाकी से अपनी राय रखी तो कुछ सियासी जमातें बौखला गईं। यह बौखलाहट हालांकि पहली बार नहीं है। सर्जिकल स्ट्राइक और बाद में पीओके पर हौसला आफ जाई के इरादे से दिये बयान पर भी विशेष रूप से कांग्रेस की युवा ब्रिगेड ने बड़े ओछे ढंग से प्रतिक्रिया दी थी। इस लिहाज से कोई नई बात नहीं है। फिर भी सियासी जमात के लोगों को पद की गरिमा का जरूर ध्यान रखना चाहिए।