सीएए विरोध में फिर हिंसा

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नागरिकता संशोधन कानून को लेकर प्रदर्शनों का एक बार फिर हिंसक होना चिंता पैदा करने वाला है। धरनों का बेमियादी होता स्वरूप देश के सामान्य जनजीवन के लिए एक अलग किस्म की असुविधा खड़ी कर रहा हैं पुलिस प्रशासन की भी ऊर्जा, जो अपराध रोकने पर खर्च होनी चाहिए, वो इन प्रदर्शनों को एक दायरे से बाहर ना जाने देने के लिए इस्तेमाल हो रही है। यूपी के अलीगढ़ में फायरिंग और दिल्ली में पत्थरबाजी की घटनाएं अमन-चैन के माहौल को बिगाडऩे की दोबारा जमीन तैयार रही हैं। लखनऊ में भी रविवार को घंटाघर के पास चल रहे सीएए विरोधी प्रदर्शन स्थल के पास दो गुटों में मारपीट और गोली चलने की खबरें सामने आईं। शासन-प्रशासन को भी अब यह समझ में आ जाना चाहिए कि इंतजार करने की नीति से कुछ ताकतें विरोध की आग को भड़काने का काम बड़े सुनियोजित ढंग से कर रही हैं। इस जवाबी जमा खर्च से रास्ता नहीं निकलेगा।

खुराफाती चेहरों पर कड़ी नजर रखने के साथ ही किसी भी तरह से सरकार को खुद संवाद स्थापित करने का रास्ता तलाशना होगा ताकि यह विरोध देश के लिए नासूर ना बन जाए। अनुच्छेद 370 के खात्मे के पहले तक जो पत्थरबाजी के मंजर कश्मीर में दिखाई देते थे, उस जैसे ही हालात रविवार को दिल्ली और अलीगढ़ में दिखाई दिए। यह तो तय है और इसमें संदेह की तनिक भी गुंजाइश नहीं दिखती कि विरोध के पीछे कुछ ऐसी ताकतों का समूह हैए जो योजनाबद्ध ढंग से चीजों को आगे बढ़ा रहा है। एक तबके में यह धारणा मजबूत करने की कोशिश की जा रही है कि सरकार का रवैया अडिय़ल है। स्वाभाविक है मोहभंग की स्थिति सरकार और समाज किसी के लिए भी हितकारी नहीं हो सकती। यह सही है कि आजाद भारत में संसद से पारित कानून के विरोध में इससे पहले ऐसा गुरिल्ला विरोध देखने-सुनने में नहीं आया।

इस विरोध की जमीनी हकीकत पिलपिली है, जो आशंकाएं हैं वो किसी आधार पर नहीं अपितुए एक तरह के भय पर आधारित हैं। जबकि नागरिकता कानून के सीधे तौर पर पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के पीडि़त अल्पसंयकों को नागरिकता देने की व्यवस्था की गई है। उसका भारत के किसी भी नागरिक से कोई लेना-देना नहीं हैं कानून की बुनियाद भारत के संदर्भ में जब नहीं है तब यह कहना कि धार्मिक आधार पर नागरिकता कानून को लाया गया है जबकि पड़ोसी तीन देशों के अल्पसंख्यकों से जुड़ा कानून है। चंद बुद्धिजीवी और कुछ अतिवादी संगठन अब तक यह भ्रम पैदा करने में कामयाब रहे हैं कि भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक जमात को नागरिकता छीनने वाला कानून संसद से पारित हुआ है। सुप्रीम कोर्ट की तरफ से वार्ताकारों को भेजे जाने के बाद भीए मसलन शाहीनबाग में जिद बरकरार है। खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कई कार इस कानून की प्रासंगिकता और इरादे को स्पष्ट कर चुके हैं, यही नहीं यह भी साफ किया जा चुका है कि नागरिकता कानून वापस नहीं होगा।

वैसे इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई लबित हैं तब तक के लिए तो प्रदर्शनकारियों को भी इंतजार करना चाहिए था। लेकिन धरना-प्रदर्शन के नाम पर आवागमन बाधित करना और फिर हिंसा पर उतारू हो जाना बताने के लिए काफी है कि लड़ाई भले ही संविधान बचाने के नाम पर लड़ी जा रही है लेकिन वास्तविकता ठीक इसके उलट है। चल रहे प्रदर्शनों को लेकर स्थानीय सरकारों की इसके लिए सराहना की जानी चाहिए कि पुलिस बल के इस्तेमाल से बचने का पूरा प्रयास किया जा रहा है। अब अगर स्थिति अराजक हो जाए तो फिर बल प्रयोग एक मात्र रास्ता भी बचता है। कुल मिलाकर रविवार की घटना को गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है। अशांति का माहौल बनाने की चल रही कोशिशों के जड़ पर प्रहार किये जाने की आवश्यकता है। जनवरी माह में पीएफआई की फंडिंग का मामला जरूर सामने आया था लेकिन संदिग्ध खातों का अभी तक वेरीफिकेशन नहीं हो पाया है। यह सुस्ती भी अशांति फैलाने वालों को प्रोत्साहित करती है।

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