संसदीय गरिमा सबके लिए

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मोदी सरकार के स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन सिंह से लोकसभा में एक सवाल कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की तरफ से पूछा गया था जिसका जवाब ना देकर मंत्री महोदय संसद से बाहर उनके प्रधानमंत्री पर विवादित बयान को लेकर माफी की मांग करने लगे। इस पर सदन में स्थिति इतनी बिगड़ गई कि कांग्रेस के एक अन्य सांसद द्वारा मंत्री से हाथापाई की कोशिश में बीच-बचाव के लिए संख्या पक्ष के अन्य सांसदों को सामने आना पड़ा। इस अप्रत्याशित परिस्थिति के उत्पन्न होने से माहौल फि र चर्चा-परिचर्चा का रह ही नहीं गया। ऐसा नहीं होना चाहिए था। सदन में हंगामा खड़ा करने के लिए माननीयों को जनता नहीं चुनती है बल्कि सदन में विधायी कार्य हो, इसके लिए चुनती है। जहां तक राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री को जो कुछ भी बाहर किसी जगह कहा था, उसका माकूल जवाब खुद मोदी ने धन्यवाद प्रस्ताव के बहाने एक दिन पहले ही दे दिया था। जहां तक माफी मांगे जाने का सवाल है तो यदि वो बात सदन में कही गयी होती तो निश्चित तौर पर संख्या पक्ष की मांग जायज होती, पर बाहर किसी को लेकर कुछ भी यदि आपत्तिजनक भी कहा गया हो तो उसे लेकर माननीयों का सवाल बेमानी है। इसका मतलब है कि पूंछे गये प्रश्न से मंत्री महोदय उस वक्त बचना चाह रहे थे या फिर अपने नंबर बढ़ाना चाह रहे थे। शुरूआत ही गलत थी और उसके बाद कांग्रेस के सदस्यों की तरफ से जो आचरण का प्रदर्शन हुआ वो भी असंसदीय था। यह ठीक है कि राहुल गांधी ने जो सदन से बाहर कहा उसे खुद कांग्रेस के लोग ही वाजिब नहीं मानते बल्कि गैर जरूरी समझते हैं लेकिन दिक्कत यह है कि भीतर खाने उठी आपत्ति को व्यक्त भी नहीं किया जा सकता हालांकि यह रोग सभी दलों में है और इसी का नतीजा है प्राय: सदनों में इसी तरह बेवजह शोर-शराबे होते आये हैं। सवाल उठाये जाने पर यह कहते भी सुना जाता है

कि जब आप विपक्ष में थे तो ज्यादातर समय हंगामें की भेंट चढ़ जाता था और अब यदि वैसा ही कुछ होता है तो आपत्ति क्यों? पर मेरे वक्त और तेरे वक्त के खेल में देश के कर दाताओं का पैसा बर्बाद होता है, इसका जवाब किसी भी माननीय के पास नहीं। संसद में खास तौर पर हालांकि काम के लिहाज से लोसकभा अध्यक्ष ओम बिरला ने जरूर रिकार्ड विधायी कार्यों को सम्पन्न कराया है। पिछले कार्यकाल की अपेक्षा ज्यादा बिल, कानून की शक्ल में वजूद में आये। लेकिन इस कार्यकाल में तीन तलाक, अनुच्छेद 370 और 35-ए का खात्मा तथा नागरिकता संसोधन कानून अस्तित्व में आया वो उपलब्धि के तौर पर रेखांकित जरूर हुआ पर खासतौर के सीएए को लेकर विपक्ष की विरोधी रणनीति से माहौल इतना तीखा हो गया है कि आगे से अब चर्चा कम, हंगामे के आसार ज्यादा हैं। सड़कों पर जो तपिश महसूस की जा रही है, उसका अस सदनों के भीतर भी पडऩा तय है। अभी तो राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के तहत चर्चा चल रही थी। जब सरकार बिल लाएगी तब अवरोध की वही कहानी दोहराये जाने की आशंका है, जो पिछले कार्यकाल में हुआ है। बहरहाल, सरकार से हर बात पर सहमति विपक्ष की तरफ से हो, यह जरूरी तो नहीं। लेकिन हंगामे में वक्त जाया ना हो इसका ध्यान जरूर रखा जाना चाहिए। इसके अलावा सदन में व्यवहार इस दर्जा तो हो कि उसका बाहर भी संदेश अच्छा जाए। हाथापाई या हाथापाई की नौबत तो सड़क छाप प्रवृत्ति है, इसकी अपेक्षा माननीयों से नहीं की जा सकती। गरिमा सबके लिए है, सभी को इसका ध्यान रखना चाहिए।

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