शाह और मात

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शाह और मात
शाह और मात

लक्ष्मी ने देखा कि उसके आगाह करने, निवेदन एवं आक्रोश का रूप किशेर पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। झुंझलाहट के साथ बोली, “मेरा फर्ज था, सचेत कर दिया। अब दोबारा नहीं कहूंगी। तुम जानो और जाने तुम्हारा काम।”

लक्ष्मी अपनी बुनाई लेकर छत पर चली गई। किशोर जी सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना जाएगा। रूप किशोर इसी कारण बड़े प्रफुल्लित हैं। अभी से अपने को अध्यक्ष मानने लगे हैं। जानते हैं कि इस समय तीन बजने वाले हैं पर जाने की जल्दी नहीं है। सोच रहे हैं कि कितनी मूर्खता की बात होगी कि मैं पहले से जाकर बैठा रहूं। मैं तो चार-साढ़े चार बजे पहुंचूंगा- राजा की तरह। जब पहुंचूंगा तो सभी आ चुके होंगे। अभिवादन में पूरा हाल खड़ा हो जाएगा और तालियों की गड़गड़ाहट से सारा हॉल गूंज उठेगा। एक व्यक्ति, या तो पुराना अध्यक्ष या फिर सचिव, माला लेकर आएगा। सचिव ही आएगा क्योंकि अध्यक्ष तो कुर्सी पर बैठा होगा। फिर मला पहनाकर कुर्सी तक ले जाएगा। घोषणा होगी कि ‘ये हैं हमारे नए अध्यक्ष’ और पुराने अध्यक्ष कुर्सी से उठ कर मुझे बैठा देंगे।।

वैसे तो वे शंतरंज के अच्छे खिलाड़ी हैं पर आज इन विचारों ने उनके एक दो-गलती करवा दी हैं। शतरंज में हारने के लिए इतना बहुत हैं।

सुनील बोला, “लो पापा! शह और मात।”

उन्नति के पथ पर
उन्नति के पथ पर

रूप किशोर ने कुछ देर सोचा और फिर हामी भरी, “हां यार, अब कोई चाल नहीं बची।”

रूप किशोर बाजी हार कर मुस्कुरा रहे हैं। हार से अधिक अध्यक्ष होने की कल्पना उन्हें प्रसन्न किए हुए है। तालियों की कल्पित गड़गड़ाहट अभी भी उनके मस्तिष्क में झंकृत हो रही है पर शतरंज का नशा भी शराब और जुए के नशे से कम नहीं होता। जैसे शराबी एक पैग के बाद दूसरा पीता ही है और जुआरी बाजी हार कर कभी उठना नहीं चाहता, इसी तरह शतरंज में भी खिलाड़ी जीत कर ही उठना चाहता है। सुनील से बोले, “लो एक बाजी और लगाओ। अबकी बार सफेद मोहरे मेरे”

सुनील भी चाहता था कि यदि पापा को एक बाजी में और मात दे दी तो यह साबित हो जाएगा कि पहली जीत केवल यूं ही नहीं हुई वरन “मैं एक अच्छा खिलाड़ी हूं।” फिर भी उसने घड़ी देखकर कहा, “पापा तीन बज चुके हैं, आपको देर तो नहीं हो रही?”

रूप किशोर ने मुस्कुराते हुए कहा, “अरे कौन आता है ठीस समय पर। सब इण्डयन टाइम से ही आएंगे। औक फिर मैं तो आज का मुख्य….., खैर छोड़…..तू नहीं समझेगा। चार-सवा चार बजे जाऊंगा। चले, चाल चल।”

बातें करते-करते दोनों ने मोहरे लगा दिए थे और रूप किशोर ने चाल चल दी थी। शतरंजी उठा-पटक शुरु हो गई और बाजी लगभग पौन घन्टे चली। पर अबकी बार ऐसी अटकी कि हार-जीत का फैसला ही नहीं हो पाया। रूप किशोर मोहरे सम्भालने का काम सुनील पर छोड़ते हुए उठे, “गिन कर रखना सुनिल। देखो कोई खो न जाए।”

सुनील ने बड़े उत्तसाहपूर्वक रूप किशोर को याद दिलाया, पापा! याद है न वादा। अध्यक्ष बनने की खुशी में कल रात रैस्टोरैन्ट में डिनर और फिर पिक्चर।।

रूप किशोर यह सुनकर तो आनन्द विभोर हो गए। एक बार फिर तालियों का कल्पित शोर उनके विचारों में गूंज उठा। उसी शोर को चीरती हुई उनकी आवाज आई, “हां, हां याद है। आज तेरा पिता शहर का सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति होने वाले है।”

यह कहते-कहते रूप किशोर जी जीने से नीचे उतर गए। गैराज खोला, गाड़ी निकाली और सभा-स्थल की ओर चल पड़े।

साभार
उन्नति के पथ पर (कहानी संग्रह)

लेखक
डॉ. अतुल कृष्ण

(अभी जारी है… आगे कल पढ़े)

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