विपक्ष बताए वैकल्पिक नजरिया

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विपक्षी पार्टियों को अखिल भारतीय स्तर पर गठबंधन करने और साथ मिल कर चुनाव लडऩे की दिशा में पहला कदम उठाने से पहले देश के सामने अपना साझा न्यूनतम कार्यक्रम पेश करना चाहिए। वे सिर्फ इस आधार पर गठबंधन नहीं कर सकते हैं कि भारतीय जनता पार्टी या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रोकना है। अगर उनका यह एजेंडा है कि भाजपा को रोकना है तो तय मानें कि इस पर उन्हें देश के बहुसंख्यक मतदाताओं का समर्थन नहीं मिलेगा। यह सही है कि देश के बहुसंख्यक नागरिक केंद्र सरकार की नीतियों से परेशान हैं, महंगाई और बेरोजगारी उनकी कमर तोड़ रही है और देश की खराब आर्थिक दशा ने उनका जीना मुश्किल किया है, इसके बावजूद यह संभव नहीं लगता है कि वे आंख मूंद कर विपक्षी गठबंधन के पीछे चल देंगे। विपक्ष को अपना वैकल्पिक एजेंडा लोगों के सामने रखना होगा। उन्हें यकीन दिलाना होगा कि उनके पास आम नागरिकों की मुश्किलों का समाधान है। अगर विपक्षी गठबंधन देश के नागरिकों को यह यकीन नहीं दिला सकता है कि उनके पास मौजूदा समस्याओं का समाधान है तो यह नैरेटिव बना रहेगा कि फिर जो है वह क्या बुरा है! दुर्भाग्य से विपक्षी गठबंधन के नेता अपना वैकल्पिक एजेंडा तैयार करने और जनता को भरोसा दिलाने की बजाय भाजपा और उसके आईटी सेल की ओर से प्रायोजित एजेंडे का जवाब खोजने में लगे रहते हैं।

भाजपा के आईटी सेल ने यह नैरेटिव स्थापित किया है कि नरेंद्र मोदी के मुकाबले विपक्ष के पास कोई नेता नहीं है। हर जगह यह पूछा जाता है कि विपक्ष साथ आएगा तो उसका नेतृत्व कौन करेगा? क्या राहुल गांधी विपक्षी गठबंधन की कमान संभालेंगे या ममता बनर्जी नेतृत्व करेंगी? इस तरह विपक्ष के संभावित अंतर्कलह को पहले ही सामने लाने का प्रयास किया जाता है। इसमें संदेह नहीं है कि नेतृत्व का मसला एक जरूरी मसला है और विपक्ष को देर-सबेर इस बारे में अपना रुख लोगों के सामने रखना होगा। लेकिन यह प्राथमिक मसला नहीं होना चाहिए। सबसे पहले इसी मसले को सुलझाएं यह जरूरी नहीं है। चूंकि यह जटिल और उलझा हुआ मसला है और नेताओं की निजी महत्वाकांक्षा इसे सुलझाने के रास्ते में बाधा बन सकती है इसलिए भाजपा और उसके आईटी सेल ने इस मुद्दे को आगे कर दिया है। उसके बिछाए जाल में फंसने की बजाय अगर विपक्षी पार्टियां नेतृत्व के मसले को बाद में सुलझाने के लिए रख दें और केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ बन रहे प्रतिरोध को दिशा देने के मसले को प्राथमिकता बना लें तो तस्वीर बदल सकती है। पार्टियों को प्राथमिक तौर पर यह समझना चाहिए कि अगला लोकसभा चुनाव सिर्फ उनके अस्तित्व की चुनौती के तौर पर नहीं लड़ा जाएगा। अगला चुनाव लोकतंत्र, संविधान, संसदीय परंपरा आदि की चुनौती के तौर पर भी लड़ा जाएगा।

केंद्र सरकार ने पिछले सात साल में इन सबके लिए चुनौती पैदा कर दी। विपक्ष को यह समझना होगा कि उनके मजबूत होने और साथ मिल कर लडऩे की जरूरत इसलिए नहीं है कि उनमें से कोई प्रधानमंत्री बन जाए, बल्कि इसलिए साथ मिल कर लडऩा जरूरी है ताकि लोकतंत्र को बचाया जाए, संसदीय परंपराओं और संविधान की व्यवस्था को बचाया जाए, देश की संस्थाओं को बचाया जाए, देश की सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा सुनिश्चित हो, संघीय ढांचे को बचाया जाए, कानून का निष्पक्ष राज हो, साझा विरासत और धर्मनिरपेक्ष प्रणाली की सुरक्षा संभव हो सके। अगर विपक्षी गठबंधन का लक्ष्य सिर्फ यह दिखता है कि भाजपा को रोकना है क्या सत्ता बदल देनी है तो उसका विफल होना तय है। लेकिन अगर वे लोगों को यकीन दिलाएं कि वे सत्ता के लिए नहीं, बल्कि देश और नागरिकों से जुड़े सरोकारों की वजह से एक साथ आ रहे हैं तो उनको सफलता मिल सकती है। ध्यान रहे इस समय देश के तीन-चार बड़े राज्यों के अपवाद को छोड़ दें तो ज्यादातर बड़े राज्यों में गैर भाजपा पार्टियों का शासन है। दक्षिण के पांच में से चार बड़े राज्यों- तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और केरल में गैर भाजपा पार्टियां शासन में हैं। पूर्व में पश्चिम बंगाल और ओडि़शा में गैर भाजपा पार्टियां हैं। पश्चिम में राजस्थान और महाराष्ट्र में भी गैर भाजपा पार्टियों का राज है।

इन पार्टियों को अपने शासन के जरिए एक ऐसा मॉडल तैयार करना चाहिए, जिसे राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत किया जा सके। अगर भाजपा विरोधी पार्टियां एक साथ आना चाहती हैं तो उनको गवर्नेंस का एक साझा मॉडल तैयार करना चाहिए, जिसे वे अपने वैकल्पिक एजेंडे के तौर पर पेश करें। भाजपा की जितनी नीतियों का विपक्षी पार्टियां विरोध कर रही हैं उनके बरस उनके पास क्या नीति है उसे लोगों के सामने लाना होगा। उन्हें बताना होगा कि उनका आर्थिक मॉडल या है। वे कैसे रोजगार सुनिश्चित करेंगे और अगर सरकारी संपत्तियों की बिक्री या उनके जरिए मॉनेटाइजेशन नहीं होता है तो वे कैसे राजस्व जुटाएंगे, जिससे विकास की दर तेज होगी। आम लोगों को महंगाई से राहत दिलाने और रोजगार के अवसर बनाने के लिए उनके पास क्या नीति है। तमिलनाडु सरकार ने पेट्रोल के दाम तीन रुपए कम किए हैं। यह विपक्ष का साझा एजेंडा होना चाहिए। वे अगर एक साथ मिल कर, साझा फैसला करके, एक ही दिन अपने यहां बिक्री कर या वैट में कमी करती हैं और पेट्रोल-डीजल के दाम घटाते हैं तो उन पर लोगों का भरोसा बढ़ेगा। दूसरी महत्वपूर्ण जरूरत यह है कि विपक्षी पार्टियां भाजपा के कोर एजेंडे यानी हिंदुत्व और राष्ट्रवाद पर भी उसे जवाब देने की रणनीति बनाएं। देशप्रेम पर किसी एक पार्टी का एकाधिकार नहीं हो सकता है।

अभी भाजपा ने ऐसा नैरेटिव बना दिया है, जिससे लोग मानने लगे हैं कि भाजपा विरोधी जितनी पार्टियां हैं वे हिंदू विरोधी हैं और देश विरोधी भी हैं। इस धारणा को बदलना होगा। यह धारणा ऐसे नहीं बदलेगी कि राहुल गांधी खुद को शिवभक्त बता दें और दो-चार मंदिरों में चले जाएं या ममता बनर्जी चंडीपाठ करने लगें। इस तरह की प्रतीकात्मक चीजों से भी राजनीति होती है लेकिन भाजपा के बनाए नैरेटिव की जड़ें इतनी गहरी हो गई हैं कि प्रतीकों से काम नहीं चलेगा। विपक्ष को इसके लिए भी एक साझा पहल करनी होगी। उन्हें लोगों को यह बताना होगा कि भाजपा की केंद्र सरकार जो कर रही है उससे न हिंदू मजबूत हो रहे हैं और न देश मजबूत हो रहा है। उलटे समाज का विभाजन बढ़ रहा है, जिससे देश कमजोर हो रहा है। यह कोई मुश्किल काम नहीं है। आखिर महंगाई से लेकर देश में चलाए जा रहे विभाजनकारी एजेंडे पर विपक्षी पार्टियां एक साथ लड़ रही हैं तो वे इन चुनौतियों से निपटने का एक साझा कार्यक्रम भी पेश कर सकती हैं।

आमतौर पर गठबंधन की सरकार बनने के समय साझा न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनता है, जिस पर सरकार चलती है। अगर विपक्षी पार्टियां यह साझा न्यूनतम कार्यक्रम पहले पेश करें तो बेहतर होगा। इस समय सरकार आर्थिकी के मसले पर बैकफुट पर है। उसे लेकर विपक्ष का एक मॉडल आए। समावेशी समाज के लिए एक मॉडल हो। विदेश और सामरिक नीति पर एक मॉडल हो। अलग अलग क्षेत्रों के विशेषज्ञ इसे तैयार करें और सभी पार्टियां मिल कर लोगों के सामने इसे पेश करें और उन्हें यकीन दिलाएं कि इसका मकसद सिर्फ भाजपा क्या नरेंद्र मोदी को हराना और साा हासिल करना नहीं है, बल्कि वे इसे लेकर ईमानदार हैं और इसका मकसद देश और लोगों की भलाई है तो इसमें लोग दिलचस्पी लेंगे। सिर्फ साा बदल कर देने में अभी लोगों की दिलचस्पी नहीं दिख रही है। विपक्ष की राजनीति में उनकी रूचि पैदा हो इसके लिए जरूरी है कि पार्टियां नेतृत्व के मसले को छोड़ कर मुद्दों पर बात करें और राजनीति से लेकर कूटनीति, सामरिक नीति, अर्थनीति आदि का वैकल्पिक मॉडल पेश करें।

अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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