मुझे खुशी हुई कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डा. राममनोहर लोहिया को उनके जन्म दिन पर याद किया। उन्होंने यह इसलिए नहीं किया कि लोहियाजी के प्रति उनकी कोई श्रद्धा है या फिर वे उनकी समाजवादी विचारधारा को थोड़ा भी समझते-बूझते हों। उनकी पीढ़ी और उनके बाद की पीढ़ी के वर्तमान नेतागण विचारधारा की दृष्टि से बिल्कुल बेगाने हैं। सत्ता और पत्ता ही उनकी विचारधारा है।
फिर भी मोदी ने लोहियाजी को याद किया, अखिलेश यादव और राहुल गांधी की खिंचाई करने के लिए। उनका कहना है कि लोहियाजी परिवारवाद के खिलाफ थे और ये दोनों युवा नेता अपने मां-बाप के चलते ही नेता बन गए हैं। मोदी का यह तर्क सही है। मोदी ने यह भी कहा है कि लोहियाजी अंत तक कांग्रेस-विरोधी रहे लेकिन अखिलेश कांग्रेस का डटकर विरोध क्यों नहीं कर रहा है?
यह प्रश्न भी सही है लेकिन लोहियाजी को गए हुए 52 साल हो गए। क्या 52 साल में भारत की राजनीति में कोई बदलाव नहीं आया है? सबसे बड़ा बदलाव यह आया है कि विचारधारा सिर्फ दिखावे के हाथी-दांत की तरह रह गई है। कौनसी पार्टी कौनसा उम्मीदवार खड़ा कर रही है, किस पार्टी से हाथ मिला रही है, कैसे वह पैसा उगाह रही है, कैसे वह अरबों रु. की दलाली खा रही है, कैसे वह काले को सफेद करने की नई-नई तरकीब निकाल रही है, इन सबका बस एक ही पैमाना है- कुर्सी पर कब्जा करना, जैसे-तैसे चुनाव जीतना।
इस मामले में राहुल और अखिलेश के मुकाबले मोदी ज्यादा बड़े उस्ताद हैं। राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, धारा 370, राम मंदिर, समान आचार संहिता, रोजगार आदि सारे विचार दरी के नीचे सरक गए हैं। सत्ता का विचार सबसे ऊपर है। यही हाल सभी पार्टियों का है। लोहियाजी ने केरल में अपनी पार्टी की सरकार गिरा दी थी, क्योंकि वह सिद्धांत-विमुख हो गई थी। मोदी ने डा. लोहिया की याद दिलाई अच्छा किया। यदि वे दुबारा प्रधानमंत्री बन जाएं तो उन्हंस लोहिया के कई आज भी सुसंगत विचारों को अमल में लाना चाहिए। जैसे दाम बांधो, जात तोड़ो, नर-नारी समता, अंग्रेजी हटाओ, रामायण मेला, भारत-पाक एका, विश्व सरकार, सिविल नाफरमानी आदि !
जब मेरे सुझाव पर अटलजी ने दीनदयाल शोध संस्थान 1968 में बनाया तो नानाजी देशमुख ने मेरे आग्रह पर एक पुस्तक छपवाई थी– ‘गांधी, लोहिया और दीनदयाल !’ मोदी को चाहिए कि उसे पढ़ें और उस पर अमल करें। यह काम अखिलेश और राहुल ज्यादा जोर से करें, ऐसी अपेक्षा मैं रखता हूं।
डॉ. वेद प्रताप वैदिक