लोकतंत्र कहां खो गया

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आज लोकसभा के चुनावों की तिथियों की घोषणा हो गई है। भारत की जनता अगले पांच वर्षों के लिए अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करेगी जो देश की नीति तथा गति का संचालन करेंगे। इस बार के लोकसभा चुनाव अनेक दृष्टि से महत्वपूर्ण और विरोधाभासी घटनाक्रमों पर आधारित होने के कारण विशेष हो जाता हैं। लगभग एक वर्ष पहले से ही चुनावी गतिविधियां तेज हो गई थी, गठबंधन की परिकल्ना महागठबंधन में रूपांरित हो चुकी है, सामान्य सहमति के बिन्दु क्या है। इस महागठबंधन का संयोजक कौन हैं, सामान्य सहमति के बिन्दु क्या है। इस पर कोई चर्चा अभी तक नहीं की गई। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के इस नारे के साथ सभी विपक्षी दल एक मंच पर आकर बाहुबंधन कर रहे हैं कि मोदी हटाओं, देश बचाओं। यह प्रश्न जन्म लेना स्वाभाविक है कि क्या लोकतांत्रिक मानक केवल किसी व्यक्ति को सत्ता से हटाकर किसी अन्य को सत्तासीन करने तक सीमित होते हैं। सत्ता से हटाकर किसी अन्य को सत्तासीन करने तक सीमित होते हैं। सत्ता की नीति प्रवृत्ति तथा कार्ययोजना का कोई स्थान इसमें नहीं होता।

ऐसा लगता है कि महागठबंधन अभी तक अपनी दिशा तय नहीं कर पाया है। जब ममता बनर्जी से यह प्रश्न किया गया कि महागठबंधन किन-किन कार्यक्रमों पर सहमति के आधार पर होगा तो उनका कहना था कि पहली प्राथमिकता केवल मोदी को सत्ता से बाहर करना है, कार्ययोजना बाद में तैयार की जाएगी। शायद यह महागठबंधन विश्व का पहला ऐसा राजनीतिक मेल होगा जिसको यह ज्ञात नहीं कि वह देश को क्या देना चाहता है जो मोदी देने में असफल रहे हैं। इस महागठबंधन की एक विचित्र सत्यता यह भी है कि इसमें अधिकांश दल ऐसे हैं जिनका जन्म ही एक-दूसरे के विरोध में हुआ। ममता बनर्जी की राजनीति वामपंथी तथा कांग्रेसी राजनीतिक शक्ति के विरोध में भी थी, उनका पूरा संघर्ष इन दोनों दलों के खिलाफ था तथा भारतीय जनता पार्टी का आशीर्वाद उनके साथ था। सत्ता का आग्रह इस प्रकार से परिवर्तित हुआ कि वर्तमान में उनके विरोध में वे प्रखर नेता बनीं थी।

आज वे इनके महागठबंधन में सहयोगी हैं। उत्तर प्रदेश की स्थिति तो बिल्कुल ही विचित्र है। मायावती समाजवादी पार्टी को असामाजिक तत्वों का जमावड़ा कहा करती थी, लखनऊ में हुए हमले को न भूलने वाला कांड कहती थी, लेकिन स्थिति बदल गई। आज वे समाजवादी पार्टी के साथ ही हैं, लेकिन जो हाथ उनको बचाने के लिए आए थे वे राजनीतिक शत्रु हो गए। यह ठीक है कि लोकतंत्र में चुनाव एक पवित्र आचरण पर भी नर्भर करती है। दुखद है कि नैतिकता और मर्यादाओं के सभी मानक ध्वस्त हो रहे हैं। दोषी सभी हैं। मोदी देश के प्रधानमंत्री होने के नाते संस्था गत हो जाते है, लेकिन अपने भाषणों में वे जिस प्रकार के तेवर दिखाते हैं, वह भी पद की गरिमा के अनुकूल नहीं हैं। कहीं लोकतंत्र खो तो नहीं गया।

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