राहुल का मांफीनामा

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इस आम चुनाव को खास कहने वालों की लड़ाई कई मोर्चों पर एक साथ दिखने से वाकई दिलचस्प हो गयी है। सिलसिलेवार देखें तो जो तस्वीर उभरती है वो लोक तंत्र के रक्त दाब (ब्लड प्रेशर) की दास्तां कहती है। बीते डेढ़ साल से कांग्रेस राफेल डील पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को घेरते हुए एक नारा गढ़ रही है चौकीदार चोर है और अपनी मुहिम को धार देने के इरादे से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य टिप्पणी को यह बता दिया कि अब तो सबसे बड़ी कोर्ट भी मान रही है कि चौकीदार चोर है। इसके बाद भाजपा की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में मामला उठाये जाने पर काफी ना-नुकुर के बाद राहुल गांधी ने बिना शर्त माफी मांग ली है। शुक्रवार को इस मामले में अवमानना मामले को बंद किये जाने का आग्रह किया गया है।

वैसे कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट का हवाला यूं ही आवेश में नहीं दिया था। यह बात माफी मांगने में इतनी देर लगाने से साफ हो गयी है। पर कोर्ट में बैक फुट पर रही कांग्रेस ने भी आचार संहिता के मामले में चुनाव आयोग द्वारा मोदी-शाह को क्लीन चिट दिये जाने के खिलाफ याचिका दायर की थी और उम्मीद की थी कोई आदेश आएगा पर उसे सुनने से ही कोर्ट ने इनकार कर दिया। पर इस बीच पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर मोदी के बयान को लेकर कांग्रेस फिर सुप्रीम कोर्ट में है। उम्मीद है कि कोर्ट की तरफ से कोई चेतावनी दी जा सकती है। खासतौर पर भाजपा और कांग्रेस के बीच सडक़ पर तो संग्राम छिड़ा ही हैए कोर्ट के दरवाजे पर भी दलीय हिसाब-किताब बराबर करने की नूरा-कुश्ती चल रही है। इस चुनाव के आखिरी दो चरणों में गड़े मुर्दे उखाड़े जाने की प्रतिस्पर्धा चल पड़ी है।

आम मुद्दों पर एक -दूसरे को घेरना और चुनाव जीतना शायद नेताओं को अब रास नहीं आ रहा, इसीलिए इतिहास के पुराने पन्ने पलटे जा रहे हैं। वैसे भी चुनाव में इस बात का क्या तुक कि राजीव गांधी के कार्यकाल में आईएनएस विराट एक परिवार के लिए टैक्सी की भूमिका निभा रहा था। उस वक्त यदि हुआ भी था तो उसके लिए आम चुनाव भला कैसे किसी के लिए उपयुक्त अवसर हो सकता है! वर्तमान पर चर्चा और जवाबदेही से बचने का क्या मतलब, पर इन दो चरणों में लगता है जनता के सामने बोफोर्स, सिख दंगे और भोपाल गैस कांड जैसे सवाल होंगे। हो सकता है जवाब में गोधरा और गुजरात दंगे की भी एक बार फिर अनुगूंज हों। दिल्ली की लडक़ी के इस सवाल की अनदेखी नहीं की जा सकती कि चुनाव नोटबंदी और जीएसटी पर लड़ा जाना चाहिए।

यह इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि इन्हीं दो फैसलों को मोदी सरकार ने क्रांतिकारी बताया था। पर सियासत में होता यही है कि सीधे-सीधे कोई बात नहीं होती और वो इतनी घुमावदार होती है कि तथ्य ढूंढऩे वाला ढूंढ़ता ही रह जाएगा। कथित वैचारिकता के नाम पर लड़ाई का एक पहलू यह भी है कि धर्मनिरपेक्षता के बड़े पैरवीकार और कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह इन दिनों भेापाल में हठ योगियों के भरोसे चुनाव लड़ रहे हैं। ऐसा इसलिए कि सामने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर हैं जिन पर मालेगांव विस्फोट का आरोप है और उनसे मुकाबला करना है तो नर्मदा पुत्र का खिताब भी चाहिए। तो कथनी और करनी के बीच का अंतर भी यह चुनाव रेखांकित कर रहा है।

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