भीड़ की हिंसा है दोधारी तलवार

0
379

हिटलर के समकालीन महान कवि मार्टिन नीमोलर की एक कविता है- पहले वो कम्युनिस्टों के लिए आए, मैं चुप रहा क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था। फिर वे आए मजदूर संगठन कार्यकर्ताओं के लिए, मैं चुप रहा क्योंकि मैं मजदूर नहीं था। फिर वे आए यहूदियों के लिए, मैं चुप रहा क्योंकि मैं यहूदी नहीं था। फिर वे मेरे लिए आए और तब तक बोलने के लिए कोई नहीं बचा था। हां, यह कविता एक भयावह अतीत का दस्तावेज है। जब इसे समकालीन संदर्भों में देखते हैं तो इसकी भयावहता और बढ़ जाती है। तानाशाही या फासीवादी शासन अपने साथ कैसी समाज व्यवस्था लाता है वह इससे समझ में आता है।

झारखंड के एक छोटे से शहर मिहिजाम में सोमवार को लालमोहन यादव को देश में बनती इस नई समाज व्यवस्था का एक छोटा सा अनुभव हुआ। लालमोहन यादव मस्जिद रोड पर फल का ठेला लगा कर खड़ा था। उसने लुंगी पहन रख थी और चेहरे पर छोटी सी दाढ़ी भी थी। सामने से आ रही एक गाड़ी में बैठे नौजवानों से उनका ठेला हटाने की बात पर विवाद हुआ। विवाद बढ़ा तो नौजवान गाड़ी से उतर कर उससे जय श्री राम के नारे लगवाने लगे। लालमोहन यादव ने नारा भी लगा दिया और रामचरितमानस की एक चौपाई भी सुनाई। उन्होंने पढ़ा- बैर न कर काहू सन कोई, राम प्रताप विषमता खोई। समाज में वैर को दूर करने के लिए तुलसीदास ने यह चौपाई लिखी है।

लालमोहन यादव तो रामचरितमानस की चौपाई सुना कर बच गए। अगर किसी को चौपाई याद नहीं हो तो उसका क्या होगा? या अगर किसी को जय श्री राम का नारा लगाने और चौपाई सुनाने का मौका नहीं मिला तो क्या होगा? ध्यान रहे झारखंड में पिछले पांच साल में मॉब लिंचिंग की घटनाओं में करीब एक दर्जन लोग मारे गए हैं, जिनमें दो आदिवासी भी हैं। बाकी का धर्म बताने की जरूरत नहीं है। सो, धर्म के नाम पर हो रही मॉब लिंचिंग की इस दोधाऱी तलवार के खतरे को समझने और इससे पहले की देर हो जाए, इसे रोकने की जरूरत है।

जब धार्मिक कट्टरता का दैत्य खड़ा किया जाएगा और ‘हम’ व ‘वे’ का विभाजन बढ़ाया जाएगा तो उसकी अंत परिणति कैसी होगी यह जम्मू कश्मीर और पंजाब में हम पहले देख चुके हैं। जम्मू कश्मीर में भी धर्म पहचान कर पंडितों को मारा और भगाया गया था। जो लोग उस समय इस भयावह घटना पर चुप रहे थे आज वे ही उसका परिणाम भी भुगत रहे हैं। पंजाब में अस्सी के दशक में ऐसे ही धर्म पूछ कर जब लोगों को गोली मारी जाने लगी तब जो लोग चुप रहे वे भी अंततः इसका शिकार हुए। आतंकवाद, कट्टरता, उन्माद का दैत्य जब बढ़ता है तो वह सिर्फ उन्हीं का शिकार नहीं करता है, जिनके लिए उसको डिजाइन किया गया होता है। वह भस्मासुर का रूप लेता है और फिर अपने बनाने वाले को ही निशाना बनाने लगता है।

गौरक्षा के नाम पर शुरू हुई हिंसा के मौजूदा विस्तार को देख कर इसके खतरे का अंदाजा होता है। पहले लोग गौरक्षा का नाम पर मारे गए। फिर बच्चों के अपहरण के संदेह में मारे गए। फिर चोर बता कर लोगों की हत्या हुई। यह सिलसिला आगे बढ़ता जाएगा। कहीं लड़की छेडऩे के नाम पर भीड़ किसी की हत्या कर सकती है तो कहीं किसी और बहाने से लोगों को मारा जा सकता है। उसमें जरूरी नहीं है कि मरने वाला हर बार एक ही समुदाय का हो। कभी ऐसी ही हिंसक भीड़ का हिस्सा रहे लोग भी इसका शिकार हो सकते हैं। भीड़ की हिंसा कानून का राज खत्म होने का इशारा है। और जब कानून का राज खत्म होता है तो कमजोर सबसे पहले शिकार बनता है। वह कमजोर शिकार कोई भी हो सकता है। जैसा कि राहत इंदौरी ने अपनी एक नज्म में कहा है- लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है। इसी नज्म को तृणमूल सांसद महुआ मोईत्रा ने देश में फासीवाद की आहट बताने वाले अपने भाषण में पढ़ा था। उन्होंने आगे की पंक्तियां पढ़ी थीं- जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे, किराएदार हैं जाती मकान थोड़ी है। सभी का खून शामिल है यहां कि मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है।

अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here