भारतीय अर्थ-व्यवस्था : राजनीति पर रुपैया भारी

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यदि अगस्त का पहला हफ्ता भारत में कश्मीर के पूर्ण विलय का हफ्ता माना जाएगा तो अगस्त का यह आखिरी डेढ़ हफ्ता भारतीय अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने का माना जाएगा। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने मंदी को सुधारने के 32 उपाय प्रतिपादित किए। उद्योगपति और व्यवसायी लोग अपने धंधों को गति दे सकें और बैंक उनकी मदद कर सकें, इसलिए बैंकों को सरकार ने 70 हजार करोड़ रु. देना तय किया !

26 अगस्त को रिजर्व बैंक ने भारत सरकार को 1.7 लाख करोड़ रु. देने की घोषणा कर दी और 28 अगस्त को वित्तमंत्री ने ऐसी घोषणाएं कर दीं, जिनसे भारत में विदेशी विनियोग में आसानी होगी। इसके अलावा गन्ना किसानों को छह हजार करोड़ से ज्यादा की सहायता दे दी और 75 नए मेडिकल कालेज खोलना भी तय कर लिया। शीघ्र ही सरकार भवन-निर्माण के क्षेत्र में और आयकर में भी बहुत-सी रियायतों की घोषणा करनेवाली है।

यह सब सरकार को इतनी हड़बड़ी में क्यों करना पड़ रहा है ? इसीलिए करना पड़ रहा है कि देश का सकल उत्पाद काफी घटने का डर है। बेरोजगारी पिछले 6-7 साल में इतनी बढ़ गई है कि जितनी पिछले 70 साल में कभी नहीं बढ़ी। इस समय देश में लगभग डेढ़ करोड़ लोग बेरोजगार हो गए हैं। अकेले मोटर-कार उद्योग में साढ़े तीन लाख लोग घर बैठ गए हैं। बिस्कुट कंपनी पार्ले ने 10 हजार कर्मचारी छांट दिए हैं। भवन-निर्माण उद्योग लगभग दीवालिया हो गया है।

हजारों फ्लेट खाली पड़े हैं। उन्हें खरीददार नहीं मिल रहे हैं। आम आदमी की क्रय—शक्ति घट गई है। नोटबंदी ने लाखों मजदूरों और व्यापारियों के घुटने तोड़ दिए हैं। जीएसटी भी ऐसे लचर-पचर ढंग से लागू की गई कि उससे लोगों को फायदा कम, नुकसान ज्यादा हो गया। बैंकों का अरबों-खरबों रु. नेताओं और कर्जदारों की मिलीभगत के कारण डूब गया है। उम्मीद है कि अभी वित्त मंत्रालय आनन-फानन जो कदम उठा रहा है, उससे स्थिति कुछ सम्हलेगी वरना यह निश्चित है कि कश्मीर का पूर्ण विलय और बालाकोट जैसी राजनीतिक घटनाओं के जरिए सरकार ज्यादा दिन तक अपनी छवि बनाए नहीं रख पाएगी।

ज्यों ही बेरोजगारी और मंहगाई बढ़ी कि सारे देश में हा-हाकर मचना शुरु हो जाएगा। विरोधी दलों की आवाज़ें अपने आप बुलंद होती चली जाएंगी। पांच-खरब की अर्थ-व्यवस्था का सपना देखने वाली सरकार की सारी ताकत खुद को बचाए रखने में खर्च हो जाएगी। राजनीति पर रुपैया भारी पड़ जाएगा। इस समय जरुरी यह है कि सरकार देश के प्रमुख अर्थशास्त्रियों के साथ मुक्त संवाद कायम करे और अर्थ-व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए साहसिक कदम उठाए।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…

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