भाजपा को रास नहीं आ रही भागवत कथा !

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भारत में करीब एक सौ साल से तो कांग्रेस व संघ ही विद्यमान रहा है, कांग्रेस का जन्म जहां 1889 में हुआ था तो संघ का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में हुआ और पूर्व जनसंघ का जन्म तो काफी बाद में हुआ। किंतु यह सही है कि जनसंघ का जनक संघ ही माना गया, जिसे संघ ने अपना राजनीतिक संगठन घोषित कर रखा था, बीसवीं सदी के मध्य में भारत की आजादी के आसपास ही जनसंघ का जन्म हुआ जो 1980 में भारतीय जनता पार्टी बन गया, अर्थात् आज जो भारतीय जनता पार्टी है उसकी उम्र महज चालीस साल ही है जबकि संघ उसके दादाजी की उम्र अर्थात् करीब सौ वर्षीय है, अब ऐसे में यदि आज के पोते को आज की हवा लग गई और उसे दादाजी का गलत काम पर गुर्राना अच्छा नहीं लग रहा है, तो उसके लिए समय दोषी है, भाजपा नहीं, हाँ….. यह अवश्य है कि भाजपा अपनी पुरानी सामाजिक संस्कृति भूल गई और मौजूदा हालातों में ढल गई, फिर जब से भाजपा पर सत्ता का रंग चढ़ा है, तब से तो उसकी स्थिति एक बहुप्रचलित कहावत- ‘‘पहले तो मियाँ बावले, ऊपर से पीली भाँग’’ के अनुरूप हो गई, जब सत्ता किसी को भी अपने समकक्ष नहीं समझती तो फिर संघ या संघ प्रमुख क्या चीज है?

और यह सब तभी होता है, जब भाजपा सत्ता में रहती है, खासकर वर्तमान में? क्योंकि जब अटल जी – आडवानी जी का राज था, तब संघ की स्थिति ऐसी नहीं थी। …..अब तो आप जबसे डॉ. मोहनराव भागवत संघ प्रमुख बने है, तभी से अब तक का इतिहास उठाकर देख लो उनके हर कथन को विवादास्पद बना दिया गया सत्तारूढ़ भाजपा के महापुरूषों द्वारा फिर वह बिहार चुनावों के पहले के उनके वक्तव्य हो या आज दलबदलुओं के बारे में भागवत जी द्वारा भोपाल में की गई टिप्पणी हो? भागवत जी जहाँ भाजपा की पुरातन संस्कृति और मौजूदा सत्ताप्रधान कार्यप्रणाली के बीच तालमेल नहीं बैठा पा रहे है और दलबदलुओं को भाजपा संगठन के समर्पित सदस्य नहीं मानते वहीं सत्ता का रंगीन चश्मा चढ़ाये भाजपा के दिग्गज दलबदलुओं को अपने वर्षों पुराने समर्पित कार्यकर्ताओं से अधिक तवज्जोह दे रहे है, यहीं भाजपा की सोच भागवत जी को रास नहीं आ पा रही है, वे भाजपा को अपने जमाने के उसी जनसंघ के चश्में से देख रहे है, जिसमें पार्टी के सिद्धांतों व परम्पराओं को प्राथमिकता दी जाती रही थी।

भागवत जी परिवार के बुजुर्ग की हैसीयत में सब कुछ पूर्वानुसार देखना चाहते है, जो कि मौजूदा हालातों में संभव नहीं है अर्थात भागवत जी अपने संघ का वर्चस्व कायम रखकर अपनी बात ‘आदेश’ के रूप में मनवाना चाहते है और आज की भाजपा को नई पीढ़ी पारिवारिक बुजुर्ग की तरह दादाजी को एक कमरे में कैद करके रखना चाहती है, मुख्यरूप में आज संघ और भाजपा का यही विवादित स्वरूप है। चूंकि संघ प्रमुख व भाजपा दोनों के चश्में और उनसे देखने का नजरिया मेल नही खा रहा है, इसीलिए संघ व उसके प्रमुख अपने आपकों उपेक्षित समझ रहे है, संघा प्रमुख भाजपा को पुराने जनसंघ के सांचे में ढला देखना चाहते है जो अपने सिद्धांतों व मर्यादाओं से बंधी हो और …..भाजपा चूंकि सत्ता मद्य सेवन कर उसके नश में झूम रही है, इसलिए उसे अपने बुजुर्ग संगठन व उसके प्रमुख के आदर-सम्मान का कोई भान नही है। वैसे यदि भाजपा को संगठन व उसके समर्पित सिद्धांतों की कसौटी पर कसकर मौजूदा दलबदलुओं के माहौल में देखा जाए तो सत्ता अहम् नजर आती है और संगठन के सिद्धांत गौण, यही आज का परिदृष्य है, अब इसे किसी भी नजरिये से देख लीजिए, यह आप पर है ।

ओमप्रकाश मेहता
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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