बहुत नहीं सिर्फ दो कौए थे काले!

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यह लाइन कवि भवानीप्रसाद मिश्र की इमरजेंसी के वक्त लिखी कविता की अनुकृति है। कल मैंने महाराष्ट्र की गटर राजनीति पर क्षोभ में लिखा था कि ऐसी गंदी राजनीति उस भाजपा से है, जिसके कभी एक नेता अटलबिहारी वाजपेयी हुआ करते थे। जो कहते थे कि गंदी राजनीति से मिली सत्ता को मैं चिमटे से भी नहीं छूना चाहूंगा। तभी हैरानी है कि ऐसे वाजपेयी के साथी रहे लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी की जुबान को ऐसा क्या लकवा मारा है जो इतनी गंदगी पर भी उफ तक की हिम्मत नहीं!

अपना लिखा पढ़ भाजपा के एक सुधी नेता ने फोन पर कहा- सुनिए भवानीप्रसाद मिश्र कीयह कविता जरा। और उन्होंने कविता सुना दी। फिर यह भी बताया कि भवानी बाबू ने यह कविता इमरजेंसी के दिनों में लिखी थी। कविता साप्ताहिक हिंदुस्तान के बाल मंच में छपी थी ताकि लोग पढ़ भी लें और इंदिरा गांधी-संजय गांधी की सेंसरशिप की नजर भी न पड़े। संभव है उसी सावधानी में उन्होंने इंदिरा गांधी-संजय गांधी के दो औगुनिया याकी ‘दो कौए’ के बजाय ‘चार कौए’ का विभ्रम बनाया। ऐसे ही इंदिरा गांधी के बीस सूत्री कार्यक्रम का सीधे जिक्र करने के बजाय ‘बीस तरह के काम’ से विभ्रम बना कटाक्ष किया।

यह बताते हुए उन्होने आगे कहा कि आपको समझना चाहिए कि औगुनिया याकि अवगुणियों, अहंकारी-मूर्खों का कभी-कभी जब जादू हो जाता है और दुनिया में कौवों की कांव-कांव का चौतरफा जबह शोर हो जाता है तो हंस, मोर, चातक, गौरैये,चील, गरूड़ और बाज किसी का तब कोई मतलब नहीं बचता। यदि अटलबिहारी वाजपेयी, दीनदयाल उपाध्याय आदि में कोई भी आज जिंदा होता तो उनकी जुबान भी मौन रहती! आंखे शर्म से गड़ी रहतीं! सो, क्यों आप आडवाणी जी और जोशी जी से उम्मीद करते हैं!

मैं क्या जवाब देता। मैं भवानी बाबू के ‘बाल काव्य’ के वाक्यों को सुन पहले से ही अनुत्तरित था। वाह क्या खूब लिखा है भवानीप्रसाद मिश्र ने! और कितने सरल अंदाज में। जरा गौर कीजिए आज के वक्त को इंदिरा गांधी-संजय गांधी के इमरजेंसी वाले वक्त से! आप भी पढ़िए भवानी प्रसाद मिश्र की इस कविता को (मेरे द्वारा कुछ शब्द परिवर्तन के साथ)-

बहुत नहीं सिर्फ दो (चार) कौए थे काले
उन्होंने तय किया कि बाकी सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़ें, रूकें, खायें और गायें
वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनायें
कभी–कभी जादू हो जाता है दुनिया में
दुनिया–भर के गुण दिखते हैं औगुनियों में
(औगुनिया याकि अवगुणी, अहंकारी-मूर्ख-तानाशाहों में)
ये औगुनिये दो बड़े सरताज हो गए
इनके नौकर चील, गरूड़ और बाज हो गए
हंस, मोर, चातक, गौरैये किस गिनती में
हाथ बांधकर खड़े हो गए सब विनती में
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगाए
पिऊ–पिऊ को छोड़ें कौए–कौए गायें (मीडिया)
बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
(जनता को बीस तरह के झांसे)
खाना–पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को
कौओं की ऐसी बन आई पांचों घी में
बड़े बड़े मनसूबे आए उनके जी में
उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने वाले सिर्फ रह गए बैठे ठाले
आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं दो कौवों का दिन है
उत्सुकता जग जाए तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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