फिर उभरा दबा हुआ क्षेत्रीयतावाद

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मिजोरम और असम जमीन के लिए आपस में क्यों भिड़ गए हैं, यह समझने के लिए पांच सवालों और उनके जवाबों पर ध्यान देना होगा। पहला सवाल यह है कि उत्तर-पूर्व के जिन छह राज्यों से असम की सीमाएं मिलती हैं उनमें से चार राज्यों के साथ ही असम का सीमा विवाद यों है, बाकी दो राज्यों के साथ क्यों नहीं? इसकी व्याख्या यह है कि जैसे भारत और उसके नए पड़ोसियों के साथ सीमाएं एक बाहरी ताकत, ब्रिटेन ने हड़बड़ी में तय कर दी थीं, वैसे ही उत्तर-पूर्व के नए राज्यों की सीमाएं दिल्ली में बैठे नौकरशाहों ने तय कर दीं। ज्यादातर ब्रिटिश काल से विरासत में मिलीं सीमाओं को ही कायम रखा गया। मिजोरम-असम के बीच ताजा विवाद इसका अच्छा उदाहरण है। 1972 में, जब असम के लुशाल हिल्स जिले को अलग करके केंद्रशासित प्रदेश मिजोरम नाम बनाया गया (यह 1987 में पूर्ण राज्य बना) तब गृह मंत्रालय ने जिले की जो सीमा ब्रिटिश शासकों ने 1933 में तय की थी उसे ही तय कर दिया। अंग्रेजों ने इसी क्षेत्र की सीमाएं 1875 में भी तय की थीं जिसके तहत कुछ क्षेत्र मिज़ो लोगों को दिए थे लेकिन 1933 में वे क्षेत्र उनसे वापस ले लिए गए।

इस तरह हड़बड़ी में सीमांकन की अप्रिय विरासत का यहां भी पालन किया गया। दूसरा सवाल, 1933 में सीमारेखा यों बदली गई? मिज़ो और असमी लोगों के बीच झगड़ा क्या था? मिजो 1875 वाली रेखा कबूल करते हैं योंकि उनके मुताबिक तब उनके जनजातीय बुजुर्गों और मुखियायों से सलाह की गई थी। 1933 में ऐसा नहीं किया गया। दूसरी ओर, असम का दावा कानूनी व नैतिक रूप से मजबूत है योंकि उसके मुताबिक वह अधिकृत रूप से तय सीमाओं को ही मान सकता है। साथ ही उसने राष्ट्रहित में अपने विशाल राज्य का बंटवारा होने दिया। यही वजह है कि असम, त्रिपुरा और मणिपुर के बीच गंभीर सीमा विवाद नहीं है योंकि उन्हें असम का विभाजन करके नहीं बनाया गया था। तीसरा सवाल यह है कि इतने वर्षों तक दबे सीमा विवाद आज यों उभर आए हैं? वह भी तब, जब केंद्र में मौजूद दल ही पूरे उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी सीधे या गठबंधन में सत्ता में है? गौरतलब है कि जब एक ही पार्टी कांग्रेस दोनों राज्यों में सत्ता में थी तब भी मुख्यत: असम और नागालैंड के बीच हिंसक सीमा विवाद हुआ था।

इस सवाल का जवाब यह है कि पुराने और बड़े राज्यों से अलग करके बनाए गए छोटे, नए राज्य आमतौर पर मन में शिकायत पाले रहते हैं। नागालैंड, मिज़ोरम, मेघालय और अरुणाचल के मन में सीमा से जुड़े इसी तरह के ‘अफसोस’ हैं। चौथा सवाल, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिसवा सरमा ने इस विवाद की आहट पहले महसूस कर इसे रोका क्यों नहीं? अब भी वे सबको शांत करने के उपक्रम यों नहीं कर रहे? दोनों राज्यों की सरकारें एक-दूसरे के सुरक्षाबलों व नागरिकों के खिलाफ धमकी भरे बयान क्यों दे रही हैं? असम ने अपने लोगों को मिजोरम की यात्रा करने से मना करते हुए अव्रिवसनीय निर्देश कैसे जारी कर दिए? 1985 में जब मैं असम-नागालैंड झगड़े को कवर करने के लिए मेरापानी गया था, तो देखा था कि बीएसएफ जैसे अंतरराष्ट्रीय सीमा पर चौकियां बनाकर सीमा की रक्षा करता है, वैसे ही चौकियां बनाकर दोनों राज्यों की सीमा की रक्षा कर रहा है। तब मैंने सोचा था कि इससे बुरा या होगा, पर आज यह सब अलग स्तर पर पहुंच गया है। दोनों राज्यों की ‘सीमाओं’ पर केंद्रीय सुरक्षा बल तैनात हैं।

अब पांचवां सवाल, भारत अपने सीमा विवाद को कहां सुलझा पाया है, और क्यों? मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार और शेख हसीना की सरकार के बीच जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, जिसे मोदी सरकार ने आगे बढ़ाया है, उसके तहत भारत ने बांग्लादेश के साथ अपनी जमीनी और समुद्री सीमाओं का मसला सुलझा लिया है। इसी तरह दशकों पहले इंदिरा गांधी ने श्रीलंका के साथ कछतिवू द्वीप संबंधी विवाद को सुलझाया था। भारत अगर ‘बिग ब्रदर’ वाला रवैया अपनाता तो यह सब संभव नहीं हो पाता। वास्तव में ये सात बिलकुल अलग-अलग राज्य हैं, जिनकी अपनी-अपनी क्षेत्रीय, जातीय भावना है। भाजपा उनके ‘एकीकरण’ की कोशिश कर रही है। इसने सोये पड़े क्षेत्रीयवाद को जगा दिया है।

अंत में, इन छोटे राज्यों का गठन तीन वजहों से किया गया था। एक, ये इलाके तब सुदूर शिलोंग में बैठी असम सरकार की नजऱों से दूर होने के कारण अलग-थलग महसूस करते थे। दो, उनमें बाहरी लोगों से असुरक्षा की भावना भी थी। और तीन, जनजातीय कुलीन तबके को सत्ता में भागीदारी भी देनी थी। वहीं भाजपा ने उन्हें असम के मुख्यमंत्री के रूप में एक क्षेत्रीय कमांडर-इन-चीफ दे दिया है। यह उनके लिए अव्यावहारिक, अविवेकपूर्ण, और असहनीय है। उत्तर-पूर्व को समझने में या चूक हुई? चूंकि भाजपा पूरे क्षेत्र पर राज कर रही है। शायद इसलिए उसने समूचे क्षेत्र को एक ही बड़ा इलाका समझ लिया। जबकि वास्तव में ये सात बिल्कुल अलग-अलग राज्य हैं, जिनकी अपनी-अपनी क्षेत्रीय, जातीय भावना है। भाजपा उनके ‘एकीकरण’ की जीतोड़ कोशिश कर रही है। एकीकरण की इसी कोशिश में उसने ‘एनईडीए’ नाम का एक संगठन बनाया है।

शेखर गुप्ता
(लेखक एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’ हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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