पदगति को प्राप्त हो जाना!

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मुंबई की एक विदुषी ने लिखा है कि उन के सामने गत तीन महीनों में पाँच मामले आए जिस में मुस्लिम लड़कों ने अबोध हिन्दू लड़कियों पर डोरे डाल कर, शारीरिक उत्तेजना दिला, या संबंध बनाकर, ब्लैकमेल कर, निकाह कर, धर्म-परिवर्तन कराकर, फिर जल्द उपेक्षित और मार-पीट कर, कुछ मामले में दोस्तों-संबंधियों द्वारा बलात्कार भी करवा कर, फिर अपना दूसरा निकाह कर, पहली को लाचार नौकर जैसी बनाकर रख दिया। हिन्दू विधवाओं या विवाह के बाद अलग हुई युवा स्त्रियों को भी निशाना बना कर यह हो रहा है। ऐसी शादियों से तलाक लेकर अलग होने की कोशिश करने वालियों को भी धमकी, प्रताड़ना मिली। अदालत से गुजारा देने का आदेश मिलने पर भी वह नहीं मिलता…।

कुछ हेर-फेर के साथ अधिकांश लव-जिहाद में यही हो रहा है। एक बार केरल हाई कोर्ट के संज्ञान लेने पर भी ऐसी घटनाएं रोकने के लिए सत्ताधारियों और कानून द्वारा कुछ नहीं किया जा रहा। उक्त विदुषी ने सामाजिक चेतना जगाने की बात की, जो सही है। पर क्या सत्ता और न्याय संस्थाओं की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती, जब कि इन मामलों में उत्पीड़न, धोखा, अत्याचार मौजूद है? क्या वे संसद या विधान सभा में इस पर चर्चा भी नहीं करा सकते, जिस से कम से कम सामाजिक चेतना तो बने?

विचित्र यह कि ऐसी परिघटनाएं जिस में हिन्दुओं को तरह-तरह की सांस्कृतिक, राजनीतिक वंचना, अपमान, भेद-भाव और अन्याय सहना पड़ रहा है, इस की शिकायत वे भी बरसों-दशकों से करते रहे हैं जो आज ऊँची कुर्सियों पर हैं। किन्तु कुर्सी पर पहुँच कर उन की बोलती बंद हो जाती है। वे हर तरह की बातें करते हैः विकास, चुनाव, स्वच्छता, गैस, पानी, पार्टी, नेता, वाड्रा, सर्जिकल, पाकिस्तान, आदि। किन्तु जिन पर उन का मुँह स्थायी रूप से बंद हो जाता है, वह वे बातें हैं जिन पर पहले बोलते रहे थे, जब तक उन्हें ऊँची जिम्मेदारी नहीं मिली थी। पार्टी, संगठन या सत्ता में।

तो क्या पद पाकर वे मजबूत होने के बजाए कमजोर हो जाते हैं? अपने मन की नहीं बोल सकते। किसी अन्याय पर कुछ करना तो दूर, टीका-टिप्पणी करने से भी परहेज करते हैं। पुराने सहयोगियों से संपर्क तोड़ लेते हैं। मेल, फोन का जबाव नहीं देते। यह संकोच है, या डर, विवशता? या कि सत्ता पाकर उन्हें ऐसे सत्य का बोध हो जाता है जिस से पिछली बातें झूठी, अनुचित, अतिरंजित या महत्वहीन लगने लगती हैं? यदि यह भी हो, तो क्या उन की जिम्मेदारी नहीं कि सत्ता-पदों से बाहर रहे साथियों को सचाई से अवगत कराकर ऐसी शिकायतें करना बंद कराएं?

कम से कम बीस वर्षों के अनुभव से पाया है कि ऐसे आलोचनात्मक लेखों की वैसे हिन्दूवादी प्रशंसा करते हैं, जो सत्ता-पदों पर नहीं हैं। दूसरे या तो मौन, या लानत-मलानत करते हैं। कि लेखक पराजित मानस है, छिद्रान्वेषी है, बड़ी तस्वीर नहीं देखता, अपने ही पक्ष का निंदक है, आदि। यहाँ तक कि दंडित भी करते हैं! लेकिन जिन समस्याओं से हिन्दू धर्म-समाज त्रस्त है, उन पर उन का कभी कोई बयान या हस्तक्षेप नहीं होता। तब ये सत्ता, संसाधन किस लिए हाथ में लिए जाते हैं?

जबकि अनेक छोटी और बड़ी समस्याएं भी मामूली हस्तक्षेप से सुधर सकती हैं। कई मामलों में किसी साहस की भी जरूरत नहीं। केवल तनिक बुद्धि लगाने की बात है। इसी लव-जिहाद पर यदि संसद में एक बहस ही हो जाए, तो काफी उपाय निकल जाएगा। किन्तु किसी ऐसी चिन्ता पर उन्हें कभी बाहर भी विचार-विमर्श, या संवाद तक मंजूर नहीं रह जाता। वैसे वे सत्ता-संसाधनों से सैकड़ों गोष्ठियाँ, सेमिनार, सम्मेलन, व्याख्यान, प्रकाशन, प्रचार, आदि करते रहते हैं। लेकिन उन के विषय हिन्दू चिन्ताओं को छोड़ कर बाकी हर चीज हैं। जिस में सब से बड़ा हिस्सा नेता-पार्टी का गौरवगान, आत्म-प्रशंसा, और प्राचीन हिन्दू वैभव का कीर्तन रहता है।

अतः प्रश्न उठता है – क्या सत्ता पाकर हिन्दू ही कमजोर हो जाते हैं? या कि वे पहले ही कमजोर थे, और हैं? क्योंकि प्रायः मुसलमान कैसे भी पद पर हों, अपने मजहब, समुदाय के हितों पर बोलना कभी बंद नहीं करते। यहाँ तक कि अहंकारी, गैर-कानूनी माँग भी करते हैं। साथ ही, खुले या चुपचाप इस्लामी जमीन, संसाधन, संस्थान और प्रभाव बढ़ाने में लगे रहते हैं। परवाह नहीं करते कि मीडिया या सत्ता उन्हें क्या कहती है, क्या नहीं। तब हिन्दुओं को क्या हो जाता है कि सत्ता पाकर वे कांग्रेसी, कम्युनिस्ट, जातिवादी, और नकली भाषा बोलने लगते हैं। ऊपर से इस की जयकार में संकोच करने पर पुराने साथियों को फटकारते हैं। सत्ताधारी सहयोगियों की भयंकर गलतियों पर भी चुप रहते हैं। जिन गलत कामों के लिए दूसरे की निंदा करते थे, ठीक वही करने के लिए अपने नेताओं की प्रशंसा करते हैं।

पद पाकर प्रायः हिन्दू नेता झूठ बोलने लगते हैं। चाहे विषय धार्मिक, मिशनरी, इस्लामी हो, या वैदेशिक, सामाजिक, ऐतिहासिक। यह पहले नहीं था। अंग्रेजों के समय हमारे नेता हिन्दू समाज की चिन्ताओं पर बोलने में संकोच नहीं करते थे। तब स्वतंत्र भारत में क्या हो गया, कि हिन्दू चिन्ताएं औपचारिक विवर्श से ही बाहर हो गईं? उन का उल्लेख निजी बात-चीत में, अंदरखाने रह गया। बरसों से सारे भाषण, बयान, गोष्ठी, सेमिनार, प्रेस-कांफ्रेंस, साहित्य छान लीजिए। अपवादों को छोड़कर कोई महत्वपूर्ण नेता, लेखक, समाजसेवी, मठाधीश, उद्योगपति, आदि किसी हिन्दू संत्रास पर चिन्ता करते, बोलते, माँग करते नहीं मिलेंगे। मानो कोई सेंसरशिप लगी हो।

यह कैसी सेंसरशिप है? विदेशी शासक कब के चले गए। उन के राज में दयानन्द, मालवीय, तिलक, श्रीअरविन्द, श्रद्धानन्द, गाँधी, प्रेमचंद, निराला, बिड़ला, गोयनका, खुल कर हिन्दू समाज की चिन्ता रखते थे। तब स्वदेशी शासन में क्या हो गया, कि मुसलमानों को देश-बाँटकर अलग दे देने के बाद भी, हिन्दू महानुभाव डरे, लजाए, आँख चुराए जीवन जीते हैं? पुराने साथियों से बचते ही नहीं, बल्कि असहमति रखने वाले विशिष्ट ज्ञानियों को भी दंडित तक कर डालते हैं! अरुण शौरी अकेले नहीं, जिन्हें अछूत बना दिया गया। यह मूढ़ता की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है, कि जिन्हें उपेक्षित करना था, उन्हें ईनाम दिये गये; और समाज जिन्हें सम्मानित होने की आशा करता था, उन्हीं पर तिरस्कार अपमान की चोट पड़ी!?

हिन्दू नेताओं, मध्य-वर्ग को क्या हो गया है? क्या उन की प्रतिभा मर गई? हिन्दूवादी संगठनों ने अपने यहाँ कैसी नैतिक, वैचारिक, आत्मिक ट्रेनिंग दी है, जिस का परिणाम नियमित बनाव-छिपाव, दोहरापन एवं मूढ़ता है? शिक्षा पर जैसी नई अ-नीति या नीति-शून्यता अभी बनी है, वह पहले कभी नहीं बनी थी! जो बुद्धि सब से मूलभूत क्षेत्र में ऐसी नीतिहीनता गढ़ सकती है, वह दूसरे काम चाणक्य जैसी करेगी, यह नितांत अविश्वसनीय है।

इस सांस्कृतिक परिदृश्य में वह हिन्दू चरित्र नहीं, जिस का उपनिषदों से लेकर स्वामी विवेकानन्द, टैगोर, निराला से लेकर राम स्वरूप तक ने आख्यान किया है। आज जो हो रहा है कि वह गाँधी-नेहरूवादी अहंकार, अज्ञान और पाखंड का ही एक रूप है। कुछ बेहतर या बदतर।

आगे हरि-इच्छा जो भी हो! पर ऐसे एलीट से कोई आशा नहीं बँधती, जो हिन्दू अबलाओं की दुर्गति देखकर भी उस से आँखें चुराकर निरंतर अपनी पीठ खुद ठोकने में लगा हो।

शंशाक शरण
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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