जंगल में लकड़ी के लिए पेड़ काटने वाली कुल्हाड़ी में लोहे के साथ लकड़ी के हत्थे का भी इस्तेमाल होता है। अंग्रेजी हुकूमत से लेकर इमरजेंसी और अब अर्नब की गिरफ़्तारी जैसे मामलों में कानून की बलि देने के लिए पुलिस की कुल्हाड़ी का इस्तेमाल अब देशव्यापी ट्रेंड बन गया है।
अर्नब की गिरफ्तारी के बाद लोकतंत्र के जिन खंभों के गिरने की बात हो रही है, उसके लिए वे लोग सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं, जिनके ऊपर संविधान के संरक्षण की जवाबदेही है। इस गिरफ्तारी के बाद महाराष्ट्र और केंद्र सरकार के बीच चल रहा गुरिल्ला युद्ध अब क्लाइमेक्स में पहुंच गया है। भाजपा नेता इस गिरफ्तारी को इंदिरा गांधी की इमरजेंसी से जोड़ रहे हैं, तो कांग्रेस ने पलटवार करके अन्य राज्यों में हुए पत्रकारों के खिलाफ दमन और डंडाराज का तर्क गढ़ दिया।
महाराष्ट्र के नेता और मंत्री तटस्थ और शांत भाव से क़ानून के महात्म्य को बता रहे हैं। नेताओं की बयानबाजी से जाहिर है कि जड़ कागजी क़ानून अब राजनेताओं की मुट्ठी में समा रहा है। इस आपाधापी में नेशन यानी देश की जनता को यह जानने का हक तो बनता है कि कानून का शासन कब और कैसे नेताओं के मनमर्जी शासन में बदल गया।
इमरजेंसी की ज्यादतियों के लिए सिर्फ इंदिरा गांधी को कोसा जाता था। लेकिन इमरजेंसी जैसे हर जुल्म के लिए वे पुलिस और सरकारी अधिकारी ज्यादा जिम्मेदार होते हैं, जिनका डंडा संविधान की रक्षा की बजाय नेताओं के इशारे पर चलने लगता है। लोकतंत्र में नेता, पुलिस और अफसर यदि बिगड़ैल हो जाएं तो उन्हें संभालने के लिए अदालतों को सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। लेकिन जब अदालतें अपना फ़र्ज़ पूरा करने में विफल हो जाएं तो फिर समाज भी इमरजेंसी जैसे हादसों का अभ्यस्त हो जाता है। सरकार से तकरार और मूंछ की लड़ाई के बाद अर्नब के खिलाफ महाराष्ट्र में अनेक मामले दर्ज हो गए।
अब 2 साल पुराने मामले में उनकी गिरफ्तारी से पुलिस की कार्यप्रणाली पर अनेक सवाल खड़े हो रहे हैं। दो साल पुराने इस आपराधिक मामले में मां-बेटे के सुसाइड नोट के बावजूद नेताओं के इशारे पर पुलिस ने क्लोजर रिपोर्ट लगाकर मामले को क्यों रफा-दफा किया? चीफ ज्यूडिशल मजिस्ट्रेट ने पिछले साल पुलिस की क्लोजर रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया था तो फिर मंत्री के इशारे पर सीआईडी जांच और अब गिरफ्तारी कैसे हुई? इस मामले में मजिस्ट्रेट द्वारा नए तरीके से रिमांड और ट्रायल होने से सीजेएम के पुराने फैसले पर भी सवाल खड़े होते हैं?
अयोध्या विवाद में 3 दशक बाद हुए फैसले में वीडियो और अखबारों की खबर को भी प्रमाण नहीं माना गया तो फिर सोशल मीडिया की पोस्ट के आधार पर लोगों की मनमानी धरपकड़ क्यों जारी है। क्रिमिनल मामलों में आखिरी फैसला आने में कई दशक लग जाते हैं। लेकिन पुलिस की गिरफ्तारी और जमानत के चक्कर में आम आदमी की तो कमर ही टूट जाती है।
इलाहाबाद जैसी हाईकोर्ट में आम जनता के जमानत के मामलों की लिस्टिंग में ही कई हफ्ते लग जाते हैं। लेकिन अर्नब जैसे रसूखदारों के मामलों में पुलिस की नोटिस पर भी सुप्रीम कोर्ट से सीधे राहत मिल जाती है। निचली अदालत में मामला नहीं सुलझा तो गिरफ्तारी का यह मामला भी सीधे सुप्रीम कोर्ट में आ सकता है।
अर्नब की अतिरंजित पत्रकारिता और महाराष्ट्र सरकार का पुलिसिया दमन दोनों ही गलत हैं। इसकी प्रतिक्रिया में सुप्रीम कोर्ट से सीधे हस्तक्षेप करने की मांग या राष्ट्रपति शासन लागू करने की मांग भी अतिवादी होने के साथ गलत भी हैं। क़ानून के सामने सभी बराबर हैं, इसलिए अर्नब मामले को भी कानून की किताब के तहत ही ठीक किया जाए तो एक फिर पूरे नेशन में क़ानून का रसूख बढ़ेगा। भारत के संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी से ज्यादा महत्व ‘जीवन के अधिकार’ को दिया गया है। यदि मुलजिम सबूतों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है या उसके भागने का खतरा हो तभी पुराने मामलों में गिरफ्तारी होनी चाहिए। पुलिस की गलत हिरासत से बचाव के लिए 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेशी जरूरी है।
सुप्रीम कोर्ट ने अनेक मामलों में कहा है कि पुलिस या न्यायिक हिरासत देने से पहले मजिस्ट्रेट और जजों को विस्तृत आदेश देना चाहिए, लेकिन व्यवहार में इसका पालन ही नहीं होता। अर्नब और अन्य कई चर्चित मामलों से जाहिर है कि अब एफआईआर और गिरफ्तारी का फैसला थानों की बजाय सचिवालय से होने लगा है जो कानून की बजाय नेताओं का शासन है। बेल नियम हैं और जेल अपवाद, इसके बावजूद राजनेताओं के इशारे पर पूरे देश में गिरफ्तारी के गोरखधंधे ने ‘क़ानून के शासन’ की धज्जियां उड़ा दी हैं।
नेताओं के इशारे पर पुलिसिया दमन को रोकने के लिए अब सरकार, संसद, सुप्रीम कोर्ट और मीडिया सभी को पहल करनी होगी। गिरफ्तारी के बाद यदि कोई मामला अदालतों में नहीं टिके तो फिर पीड़ित व्यक्ति के लिए क्षतिपूर्ति और दोषी अधिकारी को दंडित करने का व्यावहारिक कानून अब संसद को बनाना होगा, तभी इमरजेंसी के अभिशाप से देश को मुक्ति मिलेगी।
विराग गुप्ता
(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं ये उनके निजी विचार हैं)