यह आम धारणा है कि अपनी पुरानी सहयोगी भाजपा को छोड़ कर कांग्रेस व एनसीपी के साथ तालमेल करने से शिव सेना को नुकसान होगा। धारणा के स्तर पर कम से कम अभी ऐसा दिख रहा है कि शिव सेना गलती कर रही है। हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति का समर्थन करने वाले जिस वर्ग ने 2014 में भाजपा और शिव सेना के अलगाव के समय शिव सेना का समर्थन किया था वह भी इस बार विरोध में है। उनका कहना है कि पिछली बार भाजपा ने गलती की थी। उसने केंद्र की अपनी सत्ता के अहंकार में शिव सेना को छोड़ कर अकेले चुनाव लड़ा था। इसके बावजूद शिव सेना ने अच्छा प्रदर्शन किया। तब शिव सेना के अच्छे प्रदर्शन का कारण यहीं माना जा रहा है कि हिंदुत्व का समर्थन मतदाता उसके साथ था।
इस बार अलग मामला है। इस बार भाजपा ने शिव सेना के साथ तालमेल करके चुनाव लड़ा। शिव सेना के पुराने फार्मूले से मिलने वाली सीटों से इस बार कम सीटों पर लड़ने का मौका मिला पर इसे खुद उसने स्वीकार किया। उसने सीट बंटवारे के नए फार्मूले पर सहमति दी। इसलिए चुनाव नतीजों के बाद जब उसने मुख्यमंत्री पद के बंटवारे का फार्मूला दिया और भाजपा को छोड़ कर अपनी धुर वैचारिक विरोधी पार्टियों एनसीपी और कांग्रेस से तालमेल बनाना शुरू किया तो जो समर्थक 2014 में उसके साथ थे उन्होंने भी विरोध शुरू किया। इसे शिव सेना का वैचारिक विचलन बता कर उसकी आलोचना होने लगी और यह निष्कर्ष निकाला जाने लगा कि उसे नुकसान होगा।
पर क्या सचमुच भाजपा को छोड़ कर शिव सेना अपना नुकसान कर रही है? सवाल है कि जब भाजपा ने शिव सेना को छोड़ा तब उसे नुकसान नहीं हुआ तो अब खुद उसके छोड़ने के बाद नुकसान कैसे होगा? यह बात ध्यान में रखनी होगी कि पहली बार ठाकरे परिवार चुनावी राजनीति में उतरा है। पहली बार बाल ठाकरे के परिवार का कोई सदस्य चुनाव लड़ा और जीता है। शिव सेना के उत्तराधिकारी बताए जा रहे आदित्य ठाकरे ने वर्ली विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और 70 हजार वोटों से जीते। इससे पहले ठाकरे परिवार किंग मेकर होता था पर इस बार पहली बार किंग बनने का मौका है।
तभी शिव सेना को यह मैसेज देने का मौका है कि ठाकरे परिवार पहली बार चुनावी राजनीति में उतरा और पहली बार ही सरकार बनाई। सत्ता में आने, सरकार बनाने का मैसेज बहुत बड़ा होता है। 1996 में सिर्फ यह मैसेज देने के लिए 160 सांसदों को लेकर अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकार बनाई थी। वह सरकार 13 दिन में गिर गई पर उन्होंने देश भर के भाजपा समर्थकों को मैसेज दिया कि भाजपा सरकार बना सकती है और उसका प्रधानमंत्री हो सकता है। सिर्फ यहीं मैसेज इस बार शिव सेना को महाराष्ट्र के मतदाताओं को देना है। शिव सेना प्रमुख यह संदेश पहुंचाना चाहते हैं कि शिव सेना सरकार बना सकती है और वह भी भाजपा के बगैर।
यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि जब भाजपा ने शिव सेना को छोड़ा था और नरेंद्र मोदी प्रचंड लहर में चुनाव हुए थे तब भी शिव सेना 62 सीटें जीती थीं। और जब वह भाजपा के साथ मिल कर लड़ी और पिछली बार से ज्यादा बड़ी मोदी लहर में तो उसकी सीटें घट कर 56 हो गईं। जाहिर है कि 56 से 62 की शिव सेना की रेंज अपनी है। उसका मोदी की लहर से कोई लेना देना नहीं है। वह उसका अपना वोट है, जो उसने अपनी खास राजनीति के जरिए बनाई है। सोचें, जब वह सरकार बनाएगी, जब उसका मुख्यमंत्री होगा तो क्या उसका यह वोट उसे छोड़ देगा? कतई नहीं! यह वोट उसके साथ रहेगा और सत्ता की गोंद के साथ कुछ नए वोट उससे चिपकेंगे।
भाजपा से अलग होने और एनसीपी व कांग्रेस जैसी कथित मुस्लिमपरस्त राजनीति करने वाली पार्टियों के साथ सरकार बनाने के फैसले से हिंदुत्व का वोट शिव सेना से अलग होगा। पर यह भी अधूरी सत्य है। शिव सेना ने हिंदुत्व की राजनीति करना काफी समय पहले बंद कर दिया था। वह सर्वजन की राजनीति करती है। उसने मराठी मानुष की राजनीति करना भी बंद कर दिया है। जब से शिव सेना से अलग होकर राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाई, तब से मराठी मानुष की राजनीति भी मनसे के ही जिम्मे रही। उद्धव ठाकरे की कमान वाली शिव सेना अब कट्टर हिंदुत्व की राजनीति नहीं करती है। वह अगर कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का समर्थन करती है तो कांग्रेस और एनसीपी भी कर रहे हैं। अगर शिव सेना अयोध्या में राम मंदिर का समर्थन कर रही है तो कांग्रेस और एनसीपी भी कर रह हैं। अगर उद्धव ठाकरे अयोध्या जाने की बात कर रहे हैं तो कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने भी अयोध्या जाने का ऐलान किया है।
हालांकि संभव है कि पारंपरिक रूप से भाजपा समर्थक रहे कुछ मतदाता शिव सेना को छोड़ें। पर भाजपा विरोध का बहुत बड़ा वोट बैंक महाराष्ट्र में है। वह शिव सेना के साथ जुड़ेगा। इसे समझने के लिए बिहार के प्रयोग को देख सकते हैं। बिहार में जब से नीतीश कुमार ने पार्टी बनाई थी वे भाजपा के साथ रहे थे। तभी जब उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ा तो माना गया कि उनको नुकसान होगा। पर इसका उलटा हुआ। उन्होंने धुर वैचारिक विरोधियों राजद व कांग्रेस से तालमेल करके जीत हासिल की और सरकार बनाई। चाहे बिहार में जनता दल यू हो या पंजाब में अकाली दल हो या महाराष्ट्र में शिव सेना हो, जो सहयोगी भाजपा पर निर्भर नहीं रहे हैं वे भाजपा से अलग होकर भी सफल हो सकते हैं। यह बिहार में दिखा है और महाराष्ट्र में भी ऐसा हो सकता है।
तन्मय कुमार
लेखक स्तंभकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं