नागरिकता कानून और संघवाद का संकट

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प्रधानमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी ने सबसे ज्यादा बार सहकारी संघवाद का जिक्र किया होगा। जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री होते थे तब भी वे देश के संघीय ढांचे को लेकर सबसे ज्यादा चिंतित रहते थे। तब की मनमोहन सिंह की सरकार जब भी कोई नई नीति लाती थी तो नरेंद्र मोदी उसे भारत के संघीय ढांचे की कसौटी पर कसते थे। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने इसी कसौटी पर जीएसटी से लेकर एनसीटीसी तक की व्यवस्था का विरोध किया था। वे उस समय के तमाम विपक्षी मुख्यमंत्रियों को एकजुट करते थे और केंद्र के ऊपर दबाव बनाते थे। अफसोस की बात है कि जब से वे खुद प्रधानमंत्री बने हैं तब से यह संघीय ढांचा ही सबसे ज्यादा चुनौतियां झेल रहा है। अभी केंद्र सरकार ने नागरिकता कानून को संशोधित किया है। यह केंद्र के अधिकार का विषय था और संसद में केंद्र सरकार के पास बहुमत का आंकड़ा है। इसलिए उसने संशोधन बिल पास करा कर नागरिकता कानून को बदल दिया। अब एक एक करके राज्यों की सरकारों ने इसका विरोध शुरू कर दिया है। पहले पश्चिम बंगाल सरकार ने कहा कि वह इस कानून को लागू नहीं करेगी। इसके बाद केरल सरकार ने भी इनकार किया और फिर राजस्थान की सरकार ने इसे लागू करने से मना कर दिया। यह सिलसिला चलता रहेगा।

कम से कम 16 राज्यों की सरकारें इसे लागू करने से इनकार करेंगी। अब सवाल है कि जब राज्य सरकार इसे नहीं लागू करना चाहते हैं तो केन्द्र सरकार कैसे इसे लागू करेगी? कायदे से यह जिला प्रशासन के जरिए लागू होने वाला कानून है। देश के संघीय ढांचे को देखते हुए जरूरी है कि राज्यो को इसमें भागीदार बनाया जाए। होना तो यह चाहिए था संशोधन कानून लाने से पहले राज्यों से बात की जाती और उनको भरोसे में लेकर ही इसे पास किया जाता। पर सरकार ने ऐसा करना जरूरी नहीं समझा। केंद्र सरकार को यह अंदाजा था कि कुछ राज्यों में सरकारें इसे लागू करने से इनकार कर सकती हैं इसलिए बिल में ऐसे प्रावधान कर दिए गए, जिससे राज्यों की मंजूरी के बगैर भी इसे लागू किया जा सके। पहले नागरिकता के मामले में जिला कलेक्टर के जरिए केंद्र सरकार के पास आवेदन किया जाता था। सारी जांच भी कलेक्टर या जिला प्रशासन के जरिए ही की जाती है। पर अब नए बिल में ऐसा प्रावधान किया गया है कि आवेदन और जांच सबके लिए केंद्र सरकार अपनी पसंद से किसी एजेंसी का चयन कर सकती है। सबसे पहले तो आवेदन की ऑनलाइन व्यवस्था की जा रही है। इसकी वजह से नागरिकता कानून की अधिसूचना जारी होने के बाद इसके दायरे में आने वाले सारे लोग ऑनलाइन आवेदन क र सकेंगे। उनको जिला प्रशासन के साथ जुड़ने की जरूरत नहीं होगी।

उसके बाद केन्द्र सरकार जगह-जगह पर बनाए गए विदेशी नागरिकों के लिए बनाए गए फॉरनर्स रीजनल रजिस्ट्रेशन सेंटर के जरिए जांच करा कर नागरिकता का फैसला करेगी। यानी पूरी तरह से यह एक्सरसाइज केन्द्र सरकार की होगी। यह संधवाद के बुनियादी विचारों का विरोध है। तभी यह विवाद यहीं पर खत्म नहीं होने वाला हैं नागरिकता देना केन्द्र सरकार का काम है इसलिए वह किसी से भी जांच करा कर नागरिकता दे देगी। पर उसके बाद जिसे नागरिकता दी जाएगी उसे तो किसी न किसी राज्य में ही बसाया जाएगा। भारत के नागरिक भी तो राज्यों में ही रहते हैं। अगर राज्य सरकारों ने उनके साथ भेदभाव शुरू कर दिया तो केंद्र सरकार क्या करेगी? आखिर नागरिक का रोजमर्रा का जीवन तो राज्य और जिला प्रशासन से ही जुड़ा होता है! क्या केंद्र सरकार जोर जबरदस्ती राज्यों से अपनी बात मनवाएगी? इसके आगे का विवाद राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को लेकर होने वाला है। केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी दोनों अड़े हैं कि सरकार पूरे देश में एनआरसी लागू करेगी। ध्यान रहे एनआरसी और नागरिकता कानून दोनों में बुनियादी फर्क है। नागरिकता देना केंद्र का अधिकार और उसका काम है। पर चाहे राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर, एनपीआर बनाने का काम हो या राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर, एनआरसी बनाने का काम हो, वह काम राज्यों के सहयोग के बगैर नहीं हो सकता है।

शशांक राय
लेखक पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं

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