नतीजे भी होने वाले हैं खास

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पूरे विश्व में अमेरिकी चुनावों को उत्सुकता के साथ देखा जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि ये चुनाव दुनिया भर के देशों की राजनीति और आर्थिक नीति को प्रभावित करते हैं। अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी अल्पसंख्यकों, अश्वेतों और आप्रवासियों की पार्टी के रूप में विख्यात है जबकि रिपब्लिकन पार्टी कॉरपोरेट्स और अरबपतियों की पार्टी मानी जाती है। वैचारिक स्तर पर यह घोर नस्लवादी और स्त्री-विरोधी पार्टी है। यह महज संयोग नहीं है कि पिछले वर्ष ह्यूस्टन (अमेरिका) में आयोजित ‘हाउडी मोदी’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रवासी भारतीयों को संबोधित करते हुए मंच से नारा दिया, ‘अबकी बार, ट्रंप सरकार’। ट्रंप मोदी के स्वाभाविक मित्र हैं। ट्रंप ने इस्लामिक देशों से आप्रवासियों के अमेरिका-प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की, खुलकर पाकिस्तान विरोधी बयान भी दिए और आतंकवाद के विरोध के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ बिना लाग-लपेट बोलते रहते हैं।

रहस्यमय खामोशी बीजेपी की विचारधारा ट्रंप से अलग नहीं है। जब मोदी ट्रंप के साथ खड़े दिखते हों तो भारतीय मीडिया कैसे पीछे रह सकता है? उसे दिक्कत आ रही है कमला हैरिस से, जो भारतीय मूल की हैं और उप-राष्ट्रपति पद के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी की प्रत्याशी हैं। यह दिलचस्प है कि मोदी के मुंह से एक बार भी बाइडन और कमला हैरिस का नाम नहीं सुना गया। दरअसल डेमोक्रेटिक पार्टी ने कुछ मुद्दों पर जो पोजीशन ली है, वह बीजेपी को खटक रही है। पाकिस्तान के मशहूर अखबार ‘डॉन’ के अनुसार 2019 में कमला हैरिस ने यह वक्तव्य दिया था, ‘हमें कश्मीरियों को याद दिलाना होगा कि वे इस दुनिया में अकेले नहीं हैं। परिस्थितियों की मांग होगी तो दखल देने की जरूरत हो सकती है।’ इस चुनाव अभियान के दौरान डेमोक्रेटिक पार्टी ने ‘मुस्लिम-अमेरिकी समुदायों के लिए अजेंडा’ नामक प्रचार-पत्र जारी किया है जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं, ‘भारत सरकार द्वारा असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस को लागू करने और नागरिकता संशोधन कानून बनाने जैसे कदमों से बाइडन खफा हैं। देश की धर्मनिरपेक्ष और बहुजातीय तथा बहुधार्मिक जनतंत्र की लंबी परंपरा के साथ इन कदमों की कोई संगति नहीं बैठती।’

जाहिर है, बीजेपी का रुख बाइडन को नजरंदाज करने का है। बाइडन और कमला हैरिस का यह मत भी है कि ट्रंप ने चीन के विरुद्ध जो आर्थिक कदम उठाए हैं, वे कुछ ज्यादा ही आक्रामक हैं। परंतु मोदी चीन के विरुद्ध अमेरिका को अपने साथ रखने के लिए ट्रंप की नीतियों का समर्थन करते हैं। इसीलिए अमेरिकी चुनाव से महज एक सप्ताह पहले 27 अक्टूबर को भारत ने अमेरिका के साथ ‘बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट’ पर हस्ताक्षर करने में इतनी फुर्ती दिखाई। भारत की यह चिंता स्वाभाविक है कि अगर बाइडन चुनाव जीत गए तो वे चीन के प्रति थोड़ा नरम रुख अपना सकते हैं। पर सवाल यह है कि भारत जैसा विशाल देश क्या आज इतना कमजोर हो गया है कि अपने पड़ोसी देश के साथ समस्याओं को वह खुद न सुलझा सके! उसे अमेरिका की बैसाखी की जरूरत क्यों पड़ रही है? एक संप्रभु देश के नाते भारत को अमेरिकी चुनाव में दोनों पार्टियों से समान दूरी बनाए रखनी चाहिए थी।

यह अमेरिकी चुनाव कोरोना महामारी के बीच हो रहा है। अमेरिका में कोरोना से 2 लाख से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। ज्यादातर अमेरिकी मानते हैं कि यह ट्रंप की लापरवाही का नतीजा है। बाइडन के साथ पहली डिबेट में जब ट्रंप ने यह कहा कि ‘हम इससे डटकर मुकाबला कर रहे हैं’ तो किसी ने विश्वास नहीं किया। इस महामारी से जो दुष्प्रभाव बच्चों की शिक्षा, नौजवानों के रोजगार और हाशिये पर पड़े लोगों के रहन–सहन पर पड़ा है, उसका भी असर इस चुनाव में दिखाई देगा। ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन ने न केवल अश्वेतों को बल्कि हर वर्ग और नस्ल के लोगों को ट्रंप के विरोध में खड़ा कर दिया है। कमला हैरिस और बाइडन के कुछ वक्तव्यों पर ट्रंप ने फ्लोरिडा की चुनावी सभा में चुटकी लेते हुए कहा है कि ‘कमला समाजवादी है’।

कमला हैरिस से जब पत्रकारों ने पूछा तो वे हंस दीं। यह सच है कि डेमोक्रेटिक पार्टी में बर्नी सैंडर्स की उपस्थिति से उसके अंदर समाजवादी खेमा मजबूत हुआ है। पहले तो बर्नी सैंडर्स ही डेमोक्रेटिक पार्टी से चुनाव लड़ने वाले थे परंतु वे अपना नामांकन हासिल करने में नाकाम रहे। फिर भी इस खेमे के प्रतिनिधि अमेरिकी सीनेट, राज्य विधानसभाओं, नगर–निगमों और राज्य स्तर के प्रशासन विभागों तक मौजूद हैं और इस चुनाव में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। इस खेमे की संतुष्टि के लिए बाइडन ने बर्नी सैंडर्स के ‘लोकतांत्रिक समाजवादी’ अजेंडे के एक बड़े हिस्से को अपना लिया है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि यह पार्टी किन्हीं समाजवादी लक्ष्यों को पूरा करने जा रही है। गौर करने की बात यह है कि अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी हारे या डेमोक्रेट, लेकिन कारपोरेट्स हमेशा जीतते हैं। इसीलिए वॉल-स्ट्रीट हर चुनाव में अरबों डॉलर खर्च करता है।

क्या करेंगे ट्रंप यह शायद पहली बार हो रहा है जब यह शंका भी जताई जा रही है कि ट्रंप अगर चुनाव हार रहे होंगे तो वे चुनावी नतीजों को स्वीकार नहीं करेंगे। डाक द्वारा पड़े वोटों की गिनती का बहाना बनाकर वे देश में अफरा-तफरी का माहौल पैदा करने की कोशिश कर सकते हैं। इसीलिए ओबामा ने अपनी पार्टी के विडियो कॉन्फ्रेंस में डेमोक्रेट्स को बाइडन और कमला हैरिस के पीछे लामबंद होने, अमेरिकी संविधान की रक्षा करने और लोकतंत्र को बचाने की जरूरत बताई। उन्होंने कहा, ‘यह राष्ट्रपति (ट्रंप) इन सब में विश्वास नहीं करते हैं।’ यह विचित्र बात है कि अमेरिका जैसे दुनिया के सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र में कोई स्वतंत्र चुनाव आयोग नहीं है। सब कुछ राज्यों पर छोड़ दिया गया है। वे अपने परिणाम घोषित करते हैं और उन्हें आधार बनाकर राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी अपनी जीत का दावा पेश करते हैं। इसके चलते रुझान पकड़ने वाले सर्वे तो क्या, एग्जिट पोल भी यहां सिरे से गलत साबित होते हैं।

अजय कुमार
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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