सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर चिंता जताई है। कोर्ट ने स्पष्ट निर्देश दिया है सभी राजनीतिक पार्टियां चुनाव में जिन्हें अपना उम्मीदवार बनाती है, यदि उसमें ऐसे लोग भी है जिन पर आपराधिक मामले लंबित है तो उसका पूरा यौरा वेबसाइट, अखबारों, फेसबुक और ट्वीटर आदि पर दें। यही नहीं टिकट देने की वजह भी बतानी होगी। ऐसा न करने पर कोर्ट अवमानना की कार्यवाही होगी। तेवर सख्त है और इरादा साफ है कि देश की राजनीति में ऐसे लोगों को मौका दिया जाए जिनका सार्वजनिक जीवन साफ.-सुथरा है। जरूरी इसलिए है कि चुने गए लोग ही विधानसभाओं और संसद में जनहित के कानून बनाते हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिन पर गंभीर मामले चल रहे हैं, वे किस नीयत और प्रतिभा से अपना योगदान कर सकते हैं। दागियों के सवाल पर किसी भी दल का दामन पाक साफ नहीं है।
आंकड़े गवाह हैं कि वक्त के साथ दागियों की संख्या घटने के बजाय बढ़ती ही चली गई । संसद की तस्वीर पलटें तो वर्ष 2004 में 24 फीसद, 2009 में 30 फीसद, 2014 में 34 फीसद और 2019 में 43 फीसद दागी सांसद है। अब इस स्थिति में किसी भी पार्टी या गठबंधन की सरकार हो, वो सार्वजनिक शुचिता के लिए भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था लाने की बात करें तो उसका जमीन पर कितना अवतरण होगाए समझा जा सकता है। 21वीं सदी के भारत में भी यदि लोकतांत्रिक व्यवस्था में मसल पावर और मनी पसर के इर्द-गिर्द चुनावी राजनीति रहेगी तो सामाजिक न्याय के मूलभूत सवाल आगे भी बने रहेंगे। इसके लिए सभी राजनीतिक दलों को तात्कालिक लाभ के मोह से मुक्त होना होगा। कोर्ट ने ठीक किया कि राजनीतिक दलों पर चयन की वजह बताने का जिमा डाला है।
कहा है किए कारण बताते समय राजनीतिक दल उसके चयन के पीछे उम्मीदवार की योग्यता, उपलब्धियां और मेरिट भी बताएं। साथ ही यह पूरा यौरा कि स्थानीय ओर एक राष्ट्रीय अखबार को प्रकाशित कराएं। यही नहींए पार्टी अपने वेबसाइट पर भी इसका उल्लेख करें। जहां तक उमीदवारों के पूरे जीवन वृत को प्रकाशित किए जाने की बात है तो चुनाव आयोग ने इस बारे में ताकीद की थी लेकिन उसका अनुपालन हाल के चुनाव में नहीं हुआ। खासकर दागी उम्मीदवारों ने इस बारे में चुप्पी साधे रखी। हालांकि पब्लिक डोमेन में उम्मीदवारों का सच तो रहता ही है पर दिक्कत यह है कि पार्टियां जब दबंग और दागी को अपना टिकट देती हैं तो उसके विरोध का पलिक के पास सीमित विकल्प होता है। चुने गए सांसदों में दागियों के आंकड़े अपने-आप में पूरी तस्वीर पेश करते हैं। अगर पार्टियों के स्तर पर यह साहस प्रदर्शित हो तो फिर साफ.सुथरों के बीच ही चुनाव होगा।
पर दिक्कत यह है कि पार्टियां ऐसे लोगों को टिकट देने का फैसला करती है, जिनका दूसरे कारणों कसे जातीय तबकों पर प्रभुत्व होता है। इसके साथ पैसे की भी बड़ी भूमिका है, चुनाव इतने महंगे हो गये हैं कि पार्टी कोई हो, ज्यादातर अमीर उम्मीदवार बनाए जाते हैं ओर उन्हीं के बीच चयन भी होता है। स्थिति यह है कि संसद हो कि विधानसभाएं,सभी जगह एक-सी स्थिति हो गई है। पार्टियां कहने को तो चुनाव सुधार का रट खूब लगाती हैं लेकिन इस पर कानून बने ऐसी किसी भी सहमति पर नहीं पहुंचती। अकेले चुनाव आयोग भी इस कार्य को सपन्न नहीं कर सकता।
कोर्ट ने इसीलिए चुनाव सुधार की दिशा में पहला बड़ा कदम उठाने की जिम्मेदारी पार्टियों पर डाली है। अब पार्टियों को तय करना है कि उन्हें देश को किस राह पर आगे ले जाना है। हालांकि इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय ने याचिका डाली थी। पर खुद भाजपा इस बारे में कितनी गंभीर है यह पार्टीवार दागी माननीयों की बढ़ती तादाद से समझा जा सकता है। अफसोस तब होता है, जब रेप और मर्डर जैसे संगीन मामलों के आरोपी भी अदालती व्यवस्था में मौजूद खामियों का फायदा उठाकर चुनावों में लड़ते और चुने जाते हैं इस पर गंभीरता से आगे बढऩे की जरूरत है।