तैयारी अभी से क्यों नहीं?

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ओलिंपिक का जादू ऐसा है कि दुनिया भले महामारी और मंदी से गुजर रही हो, लेकिन जब ये खेल होते हैं, तो उनके जश्न भरे माहौल से बचना मुश्किल हो जाता है। टोयो में ओलिंपिक आशंका और चिंताओं से घिरे माहौल में हुए। कई आशंकाएं सच साबित हुईं। मसलन, जापान के स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने चेताया था कि इन खेलों का आयोजन कोरोना संक्रमण का सुपरस्प्रेडर साबित होगा। तमाम संकेत यही कहते हैं कि ऐसा सचमुच हुआ। खिलाडिय़ों के मनोविज्ञान पर इस माहौल का गहरा असर हुआ। कई खिलाड़ी अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन इस वजह से नहीं कर पाए। बहरहाल, उससे दुनिया के उत्साह पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ा। भारत ने बेशक इन खेलों में अपने इतिहास की सर्वाधिक सफलता हासिल की। एक स्वर्ण पदक के साथ कुल सात पदक भारत ने इतिहास में कभी नहीं जीते थे। लेकिन इस सफलता को सही संदर्भ में रखा जाना चाहिए। सर्वाधिक सफलता अपने इतिहास के मुकाबले ही है। क्या फिर अगर हम अपने नजरिए को संकुचित करें और सिर्फ दक्षिण एशियाई देशों से अपनी तुलना करें, तब भी हमारी कामयाबी गौरवान्वित करने वाली लगती है।

लेकिन अगर निगाह दुनिया के पूरे मानचित्र पर रखें, तो फिर नजर यह आता है कि बहामा और कोसोवो जैसे देशों, जिनकी आबादी 20 लाख से कम है और जिनकी अर्थव्यवस्था हमसे छोटी है, वे पदक तालिका में हमसे ऊपर हैं। असल में हमसे ऊपर ऐसे देशों की कोई कमी नहीं है। चीन से तो खैर अब हम मुकाबले की सोच ही नहीं सकते हैं, जिसकी ताकत परिस्थितियों, अर्थव्यवस्था और आबादी में अभी तीन दशक पहले तक हमारे बराबर ही थी। चूंकि अपने ऐसे पिछड़ेपन पर चर्चा चार साल में सिर्फ एक बार होती है, इसलिए अभी ऐसी चर्चाओं से भी कुछ हासिल नहीं होगा। और जिस समय देश में माहौल हर क्षेत्र में अपनी तुलना अपने हालिया इतिहास से ही करने और उस इतिहास से बदला लेने का हो, उस वत ऐसी चर्चा पर बहुत से लोग ध्यान देंगे, इसकी उम्मीद भी नहीं है।

जिस समय चलन नाकामी में भी सफलता गढ़ कर नैरेटिव तैयार करने का हो, उस समय टोयो ओलिंपिक जैसी असली सफलताओं को उचित संदर्भ में रखने की कोशिश मुमकिन है कि राष्ट्रद्रोह भी मानी जाए। मगर सवाल है कि उससे आगे या हासिल होगा? यह देश का दुर्भाग्य ही तो है कि यहां राजनीति में खेला होता है और खेलों में राजनीति। टोयो ओलंपिक के बाद खिलाडिय़ों के समान के नाम पर जो हो रहा है वह राजनीति ही तो है। लिहाजा तय मानें कि इससे भारत में न तो खेलों की संस्कृति बेहतर होने वाली है और न दीर्घावधि में खेल व खिलाडिय़ों की गुणवत्ता में सुधार होना है। जो सचमुच खेलों में रूचि रखते हैं उनको याद होगा कि 2012 के लंदन ओलंपिक में भी भारत के खिलाडिय़ों ने जब छह पदक जीते थे तब भी देश में ऐसा ही माहौल था। चारों तरफ खिलाडिय़ों की जय जयकार हो रही थी, उनका स्वागत किया जा रहा था ।

उन पर इनामों की बौछार हो रही थी। लेकिन उसके बाद क्या हुआ? उसके चार साल बाद रियो ओलंपिक में भारत के 117 खिलाडिय़ों की टीम गई और सिर्फ दो पदक जीत कर लौटी। सोचें, लंदन में 83 खिलाडिय़ों की टीम ने छह मेडल दिलाए थे और रियो में 117 खिलाडिय़ों की टीम सिर्फ दो पदक लेकर लौटी थी। अगली बार या होगा, ये तस्वीर भी साफ ही नजर आती है। कड़वा सच ये है कि मोदी सरकार ने ही ओलंपिक आयोजन के वर्ष में भारत में खेल बजट में दो सौ करोड़ रुपए से ज्यादा की कटौती की थी तो फिर कैसी आशाएं? अगर भारत को खेल महाशतियों की श्रेणी में आना है तो उसे खेलों में निवेश करना होगा। जिस तरह अमेरिका, चीन, रूस या जापान में प्रतिभा की तलाश का सिस्टम है उस तरह का सिस्टम बनना होगा।

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