तथास्तु की प्रतीक्षा और प्रलय-प्रवाह

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मेरे दादा जी कहा करते थे कि जब जेठ का महीना हो तो सिर को ढंक कर रखना चाहिए। आजकल यूं भले ही सावन का महीना है, मगर कांग्रेस तो जेठ के गरमा-गरम महीने से ही गुज़र रही है। सो, भी ऐसे खुले सिर। दुबली गाय के लिए दो आषाढ़ कैसे भारी पड़ते हैं, वही जानती है। कांग्रेस को, सिर पर बिना किसी छत के, जेठ के ये दो महीने कितने भारी पड़े हैं, यह भी कांग्रेस के पैदल-सैनिक ही जानते है।

एक ज़माने में जब कोई रंगून जाता था तो वहां से कम-से-कम ‘टेलीफून’ तो करता था यह बताने को कि तुम्हारी याद सताती है, मगर राहुल गांधी कार्यसमिति की बैठक से उठ कर गए तो ऐसे गए कि कांग्रेस की पछाड़ें उनके जिया में कोई आग ही नहीं लगा रही हैं। वे तो ‘जो कह दिया, सो, कह दिया’ की मुद्रा में हैं। और, जिन्हें कांग्रेसी-शिखर पर राहुल की अनुपस्थिति की भरपाई प्रियंका से होने की आस थी, वे भी अब सुबकते घूम रहे हैं।

श्रावण भगवान शिव का सबसे प्रिय महीना है। राहुल शिव-भक्त हैं। इसलिए मुझे लगता है कि श्रावण-पूर्णिमा आते-आते कांग्रेस का मौजूदा संकट फ़िलहाल कुछ तो टल जाएगा। उसके नतीजे कितने स्थाई होंगे, समाधान कितना दीर्घकालीन होगा और कांग्रेस की रक्त-वाहिनियों में उससे कितनी जान आएगी, मैं नहीं जानता। मैं कतई आश्वस्त नहीं हूं कि दनदनाती फिर रही सत्तासीन टोली के सामने राहुल-प्रियंका-सोनिया विहीन किसी भी कांग्रेसी-नेतृत्व की टांगें नहीं कांपेंगी। ऐसे मे जो होगा, बेहद अल्पकालिक साबित होगा।

राहुल दुःखी हो कर गए हैं। उन्हें मसले का इसके अलावा कोई समाधान ही नहीं सूझा कि वे ख़ुद को दूर कर लें और सब-कुछ दूसरों पर छोड़ दें। सूझा होता तो कांग्रेस पर आज यह विपदा न पड़ी होती। इसलिए मैं तो भगवान शिव से राहुल की तरफ़ से यही अर्ज़ कर सकता हूं किः

सदुपायकथास्वपण्डितो हृदये दुरूखशरेण खण्डितरू।
शशिखण्डमण्डनं शरणं यामि शरण्यमीरम् ॥
महतरू परितरू प्रसर्पतस्तमसो दर्शनभेदिनो भिदे।
दिननाथ इव स्वतेजसा हृदयव्योम्नि मनागुदेहि नरू॥

सावन के महीने में शिव से की जाने वाली इस प्रार्थन का मोटे तौर पर यह अर्थ है कि हे प्रभु! मेरा हृदय बहुत गहरे दुःख से पीड़ित है। मैं इस दुःख को दूर करने वाला कोई उपाय भी नहीं जानता। मैं आपकी शरण में हूं। आप मेरा यह दुःख दूर करें। ज्ञान-दृष्टि को रोकने वाले इस अंधकार को भगाने के लिए मेरे हृदय में प्रकट हो जाइए। आप मेरे हृदय में प्रकट रहेंगे तो अज्ञान का यह अंधकार दूर हो जाएगा।

राहुल ने कांग्रेस के साथ जो किया, सोच-समझ कर ही किया होगा। जो उन्हें ठीक लगा, वही किया होगा। कांग्रेस में जब सबने अपने मन की कर ली और किसी ने कोई कसर नहीं छोड़ी तो राहुल को ही अपने मन की करने से हम कैसे रोकें? फिर भी मेरी एकदम अटूट मान्यता है कि जब एक से ज़्यादा लोग किसी नाव में बैठे हों तो उनमें से किसी भी एक को यह हक़ नहीं है कि वह उसमें सूराख़ कर दे। राहुल को भी नहीं। मगर जब खेवनहार के इर्दगिर्द घिरे लोगों में से ज़्यादातर ख़ुद ही इस नैया को छेद-छेद कर चुके हों तो खिवैया भी क्या करे? राहुल कोई इस जहाज को छोड़ कर भागे तो हैं नहीं। वे बैठे तो इसी जहाज में हैं। भाग्य तो राहुल का भी इसी नाव के साथ बंधा है। वे, बस, इतना ही तो कह रहे हैं कि पतवार अब कोई और संभाले।

उनके यह कहने के बाद दो महीनों से कांग्रेस के सपनों का मरना जारी है। पांच बरस से सपने उदास तो थे, मगर वे मर नहीं रहे थे। उनमें लौ बाकी थी। इस आम-चुनाव के नतीजे ने भी सपनों के प्राण पूरी तरह नहीं हरे थे। उनकी लौ मद्धम पड़ी, मगर चिनगारियां बाकी थीं। लेकिन पिछले दो महीने से देश-दुनिया कांग्रेसी सपनों का अंतिम संस्कार देख रही है। ऐसे में कपाल-क्रिया को कोई कब तक टाले पाएगा? ज़िंदगी में कोई कम माथाफोड़ी थोड़े ही है। राहुल ने अपने को इस माथाफोड़ी से अलग कर के कांग्रेसियों को एक-दूसरे का माथा फोड़ने के लिए छोड़ दिया है। देखें, क्या होता है?

कांग्रेस को इसी बेतरतीबी के बीच चार राज्यों के चुनाव में जाना है। महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और दिल्ली में कौन-सा प्रदेश ऐसा है, जहां लोग कांग्रेस-कांग्रेस जप रहे हैं? नरेंद्र भाई मोदी और अमित शाह ने कर्नाटक पर ‘मोशा’ मुहर लगा दी है। उनका वश चलेगा तो वे अगले कुछ महीनों में बिहार में नीतीश कुमार के नीचे से गलीचा खींच लेंगे। सो, पांचवे राज्य में भी कांग्रेस को उनकी चुनावी बर्छियों का सामना अगला साल शुरू होते ही करना होगा। बहुत मुमकिन है कि राहुल या प्रियंका के नेतृत्व में भी कांग्रेस इनमें से किसी भी राज्य में अपनी छटा न बिखेर पाए। लेकिन शीर्ष पर उनकी अनुपस्थिति और निर्णय-प्रक्रिया से उनकी किनाराक़शी तो कांग्रेस के पर्यवसान की गारंटी ही बन जाएंगे।

भारत में ऐसे लोगों की क़तार लंबी होती जा रही है, जिन्हें भेड़ियों के चरण-कमल धोते हुए अपनी ज़िंदगी धन्य लगने लगी है। ठीक है कि हर तमाशे का एक-न-एक दिन अंत होता है। लेकिन वह तब होता है, जब हमारे बीच वे लोग मौजूद होते हैं, जिनकी बाज़ुएं हर अन्याय पर फड़कती हों। चरण-स्पर्श कला के बूते सीढ़ियां चढ़ने वालों के पास बाज़ुएं होती ही कहां हैं? उनकी कमर तो झुक-झुक कर पहले ही टूट-फूट चुकी होती है। जिन्हें सीधा खड़े रहना ही नहीं आता, उनके भरोसे कहीं युद्ध जीते जाते हैं?

ऐसी ही आशंकाओं के साए तले कांग्रेस के पैदल-सैनिक इन दिनों आंख मिचमिचाते हुए राहुल-प्रियंका की तरफ़ देख रहे हैं। इसलिए सोनिया गांधी को इन आंखों की मिचमिचाहट भी ख़त्म हो जाने से पहले कांग्रेसी-आसमान पर कोई छतरी तान देनी होगी। देर हो गई तो किसी के किस काम की कोई भी आकाशगंगा? वैसे ही पैदल-सैनिक इनेगिने बचे हैं। उनमें कच्चा घड़ा ले कर दरिया पार करने का हौसला अब भी है। मगर कांग्रेस के बेड़े में तो, पता नहीं किस-किस के प्रायोजित, सियार कब के घुसपैठ कर चुके हैं।

सो, कांग्रेस को अपनी ज़िंदगी के कुतुबनामे पर बेहद संज़ीदगी से ग़ौर करना होगा। कांग्रेस की भीतरी दुनिया जिनती सुलझी हुई होगी, उसकी बाहरी दुनिया उतनी ही संवरती चली जाएगी। अभी तो मुसीबत ही यह है कि उसका भीतरी संसार ऐसा उलझ गया है कि ‘उलझन सुलझे ना’ का ही आलाप चारों तरफ़ बज रहा है। आज जब नए सिरे से समता-मूलक समाज बनाने की सबसे गहरी चुनौती सामने है, नई चेतना के दरवाज़े को ज़ोरों से खटखटाना ज़रूरी हो गया है, तब यह कांग्रेस का दुर्भाग्य नहीं है कि वह इस हाल में है। यह तो पूरे मुल्क़ की बदक़िस्मती है कि सघन चिकित्सा कक्ष में कांग्रेस के सिरहाने कोई नहीं है। जो भी आज के हालात के लिए ज़िम्मेदार हैं, वे सब पाप के भागी हैं।

जिन्हें अब भी लग रहा है कि उन्हें इसलिए राहुल-प्रियंका-सोनिया की ज़रूरत नहीं है कि ऊपर से कोई उतरेगा, पावन जल छिड़केगा, तथास्तु कहेगा और नरेंद्र भाई मोदी की क़रामातों का जवाब देने की इच्छा-पूर्ति के लिए पूरा भारत उठ कर खड़ा हो जाएगा, उनकी मूढ़ता का वंदन करते हुए, चलिए, मैं भी आपके साथ भीगे नयनों से अपने जनतंत्र का यह प्रलय-प्रवाह देखूं।

पंकज शर्मा
(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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