डॉ. कोटनिस और नूर इनायत की ताजा होती याद

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कमला हैरिस की वजह से अमेरिका में तो भारत का डंका बज ही रहा है, साथ-साथ यह भी खुश खबर है कि चीन में डाॅ. द्वारकानाथ कोटनिस और लंदन में नुरुन्निसा इनायत खान को भी उनके बलिदान के लिए बड़े प्रेम के साथ याद किया जा रहा है। डाॅ. कोटनिस की याद में एक कांस्य की प्रतिमा चीन में खड़ी की जा रही है और नुरुन्निसा (नूर) के सम्मान में लंदन में एक नीली तख्ती लगाई जा रही है। इन भारतीय पुरुष और महिला के योगदान से भारत की नई पीढ़ियों को अवगत होना चाहिए। जिन भारतीयों को विदेशी लोग इतनी श्रद्धा से याद करते हैं, उनका यथायोग्य सम्मान भारत में भी होना चाहिए।

डॉ. कोटनिस तथा अन्य चार भारतीय डाॅक्टर 1938 में चीन गए थे। उन दिनों चीन पर जापान ने हमला कर दिया था। नेहरुजी और सुभाष बाबू ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अनुरोध पर इन डाॅक्टरों को चीन भेजा था। डॉ. कोटनिस 28 साल के थे। वे सबसे पहले वुहान शहर पहुंचे थे, जो आजकल कोरोना के लिए बहुचर्चित है। वहां उन्होंने सैकड़ों चीनी मरीजों की जी-जान से सेवा की और एक चीनी नर्स गुओ क्विगलान के साथ शादी भी कर ली। उनके एक बेटा हुआ, जिसका नाम उन्होंने रखा— यिन हुआ— अर्थात भारत-चीन। दिसंबर 1942 में उनका वहीं निधन हो गया। उनके आकस्मिक निधन पर माओत्से तुंग और मदाम सन यात सेन ने उन्हें अत्यंत भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी। उनकी पत्नी का निधन 2012 में 96 साल की आयु में हुआ। वे एक बार भारत भी आई थीं। चीन का जो भी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री भारत आता है, वह पुणें-निवासी डॉ. कोटनिस के परिजनों से जरुर मिलता है। हो सकता है कि चीन इन दिनों उनके नाम की माला इसलिए भी जप रहा है कि गलवान के हत्याकांड का असर वह घटाना चाहता है।

जहां तक सुश्री नूर का सवाल है, उनके माता-पिता भारत के प्रतिष्ठित मुस्लिम थे। उनकी मां तो टीपू सुल्तान की रिश्तेदार थी। उनकी दादी ओरा बेकर अमेरिकी थीं। ओरा के भाई अमेरिकी योगी थे। नूर का जन्म मास्को में 1, जनवरी 1914 को हुआ। सितंबर 1919 से उनका परिवार लंदन में रहने लगा। ये लोग सूफी थे। 1920 में ये लोग फ्रांस में जा बसे। 1939 में नूर ने बुद्ध की जातक कथाओं पर एक पुस्तक लिखी। जब द्वितीय विश्वयुद्ध शुरु हुआ तो नूर का परिवार वापस लंदन चला गया। लंदन जाकर नूर ने ब्रिटिश सेना में वायरलेस आपरेटर का पद ले लिया। 1943 में नूर को ब्रिटेन ने अपने गुप्तचर विभाग में नियुक्ति दे दी ताकि वह फ्रांस जाकर जर्मन नाजी सेना के विरुद्ध गुप्तचरी करे। नूर ने जबर्दस्त काम किया लेकिन नाजि़यों ने उसे गिरफ्तार करके 1944 में उसकी हत्या कर दी। नूर के अहसान को अंग्रेज लोग आज तक नहीं भूले हैं। भारत को भी अपनी बेटी पर गर्व है।

डा.वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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