ठाकुर का अनुराग और तिवारी जी की शरियत

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एक ठाकुर थे। उनका लट्ठ पुजता था। लट्ठ पुजता था इसलिए ठाकुर थे या ठाकुर थे इसलिए लट्ठ पुजता था। बात एक ही है। जिसका लट्ठ पुजे वह ठाकुर हो ही जाता है। फिर तो तिनका भी शहतीर का काम करने लग जाता है। सो ठाकुर जी का लट्ठ पुजता था लेकिन वे सभी के प्रति अनुराग रखते थे इसलिए लोग उन्हें अनुराग ठाकुर भी कहते थे। वे लोकतांत्रिक भी थे। अपने ‘तंत्र’ से ‘लोक’ को साधे रहते थे। वे ‘लोक’ और ‘तंत्र’ दोनों के खिलाड़ी थे। खेल के नियमों को सूक्ष्मता से जानने वाले क्योंकि एक ऐसे ही सूक्ष्म और वैज्ञानिक खेल के बड़े अधिकारी भी रह चुके थे। लोक और तंत्र में विश्वास होने के कारण वे सभी निर्णय ‘लोक’ की सहमति से लेते थे। वैसे वित्त विभाग भी उनके पास ही रहता था क्योंकि वित्त के बिना न तो ‘लोक’ कल्याण किया जा सकता और न ही लट्ठ पुजने लायक भक्त रखे जा सकते हैं। वे किसी को भी दंड देने के लिए भी लोक को शामिल करते थे और अपने विचार बताकर फैसला लोक पर छोड़ देते थे। एक बार उन्होंने खेल भावना अपनाते हुए अपनी न्यायप्रिय प्रजा के सामने एक स्थिति रखी- देश के गद्दारों को ….

जनता भी ठाकुर जी की तरह न्यायप्रिय और न्यायविद; सो बहुत सोच-विचार के बाद फैसला दे ही दिया गोली मारो सालों को अब इसमें ठाकुर जी क्या करें ? लोकतांत्रिक व्यक्ति |जनता की सर्वसम्मत राय का अपमान कैसे करें ? और जब जनता से सर्वसम्मति से फैसला दे ही दिया तो यह सोचने का भी प्रश्न कहाँ उठता है कि देश के प्रति गद्दारी क्या होती है? और वास्तव में गद्दारी हुई या नहीं? क्योंकि इसमें उन्होंने अपने ही नहीं, दूसरे धर्म का भी पालन किया था। कहा भी गया है-आवाज़े खल्क को नक्कारा-ए-ख़ुदा समझो। ख़ुदा के हुक्म के आगे किसकी क्या बिसात? उनके कुलगुरु थे तिवारी जी। तिवारी जी भी पक्के लोकतांत्रिक, जिज्ञासु, वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले। सब कुछ शास्त्र सम्मत करने वाले। वे सब कुछ शास्त्र सम्मत करने वाले एक मुल्ला जी के पास भी बैठा करते थे। एक दिन मुल्ला जी के पास एक व्यक्ति आया और बोला- मुल्ला जी, मुझे रास्ते में एक सुई पड़ी मिली है। मुझे क्या करना चाहिए? मुल्ला जी बोले- तीन बार आवाज़ लगाओ। यदि कोई दावेदार आ जाए तो उसे दे देना नहीं तो अपने पास रख लेना।

मुल्ला जी पास आया व्यक्ति तीन बार बोला- जिसकी हो, यह सूई ले जाए। एक आदमी आया और उसने कहा- यह सूई मेरी है। वह सूई उसे दे दी गई। धर्म की रक्षा हो गई। तिवारी जी को सत्य और न्याय की एक नई दृष्टि मिली। जब लोग ठाकुर जी के गोली मारने के न्याय की बात लेकर तिवारी जी के पास गए तो तिवारी जी ने कहा- इसमें ठाकुर साहब की कोई गलती नहीं है। उन्होंने तो लोगों से केवल पूछा था – देश के गद्दारों को…। अब जनता ने फैसला दिया तो इसमें ठाकुर साहब की क्या गलती? मतलब कि अब कोई भी किसी को गद्दार कहकर गोली मार भी दे तो ठाकुर साहब क्या करें? यह निर्णय तो जनता का था। भुगतें- गोली खाने और मारने वाले। ठाकुर साहब ने तो अपनी लोकतांत्रिक भूमिका निभा दी। अब तो ठाकुर साहब का न्याय और तिवारी जी की शरीयत चल निकली। एक दिन ठाकुर साहब और तिवारी जी दोनों सब्जी की एक बाड़ी के पास से गुज़र रहे थे। बाड़ी का मालिक बाड़ी में कहीं अपने काम में लगा हुआ था। ठाकुर साहब न्यायप्रिय और लोकतांत्रिक तथा तिवारी जी भी पक्के धार्मिक और न्याय के लिए मनुस्मृति ही नहीं, शरीयत तक को मानने वाले।

बाड़ी में लगे कच्चे-कच्चे बैंगनों को देखकर दोनों का मन डोल गया। खर्च दोनों में से कोई नहीं करना चाहता। दोनों एक से बढ़कर एक मुफ्तखोर। तिवारी जी ने तरकीब निकाली। बोले- ठाकुर साहब, बाड़ी वाला तो दिखाई नहीं दे रहा है। क्या करें? बिना किसी से पूछे कुछ लेना भी तो उचित नहीं। क्यों न इस बाड़ी से पूछ लेते हैं। तिवारी जी ने धीरे से कहा- बाड़ी रे बाड़ी ! ठाकुर साहब ने उत्तर दिया – हाँ, मन्नू तिवाड़ी ! तिवारी जी ने कहा- रींगणा (बैंगन) ले लूँ दो-चार ? ठाकुर साहब ने बाड़ी का प्रतिनिधित्त्व करते हुए उत्तर दिया- ले, ले ना दस-बार (बारह) दोनों सज्जनों ने बैंगनों से थैला भर लिया और घर आ गए। अब तो रास्ता खुल गया। न्याय और धर्म की ध्वजा लहराने लगी। रोज़ ‘जन संपर्क’ के बहाने सब्जी की बाड़ी की तरफ जाने लगे। बाड़ी वाला परेशान। छुप कर बैठा गया। जैसे ही दोनों बैंगनों के थैले भरकर चलने लगे, बाड़ी वाले और उसके घर वालों ने धर्म और लोक के दोनों सेवकों को पकड़ लिया।

ये दोनों हराम का खाने वाले, कामचोर और ऊपर से रँगे हाथों पकड़े गए। फिर भी दोनों पक्के बेशर्म, ढीठ और कुतर्की | तिवारी जी ने कहा- हमने तो बाड़ी से पूछ लिया था। हमारी कोई गलती नहीं है। बाड़ी के मालिक का नाम था- बिसराम भूवा | वह भी तिवारी जी और ठाकुर जी के प्रभाव के कारण लोकतांत्रिक और न्यायप्रिय बन गया था। इसलिए उसने तिवारी जी की तरह ही बाड़ी में स्थित अपने कूए से पूछा- कूआ रे कूआ! कूए ने उत्तर दिया- हाँ, बिसराम भूवा। बिसराम ने फिर पूछा- दोनों को खिलाऊँ डुबकी दो-चार। कूए ने उत्तर दिया- खिलाओ ना, दस-बार (बारह) दोनों सज्जनों को जनमत और शरीयत के समर्थन और सम्मति से दस-बीस डुबकियां खिलाई गईं। फ़िलहाल दोनों अस्पताल में हैं निमोनिया से ग्रसित। अब पता नहीं, प्रचंड बहुमत और सर्वोच्च न्यायालय क्या फैसला लेगा?

रमेश जोशी
(लेखक देश के वरिष्ठ व्यंग्यकार और ‘विश्वाÓ (अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, अमरीका) के संपादक हैं। ये उनके निजी विचार हैं। मोबाइल -09460155700 l blog-jhoothasach.blogspot.com (joshikavirai@gmail.com)

 

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