जंगल में मंगल-वैचारिक दंगल

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ताजा घटना है कि छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा का एक माओवादी अपनी बहन माला से राखी बंधवाने आया। बहन के समझाने पर वह पुलिस थाने गया, जहां बहन ने राखी बांधी और भाई ने आत्मसमर्पण किया। पुलिस ने हथकड़ियां पहनाईं, आत्मसमर्पण करने वाले अपराधियों के प्रति अदालत दया का दृष्टिकोण अपनाती है। ज्ञातव्य है कि मात्र 12 वर्ष की आयु में वह माओवादियों से मिल गया, उन्हीं की बस्ती में वह युवा हुआ और उसने बसें लूटी, अपहरण व हत्याएं भी कीं। क्या 12 वर्ष की आयु में माओ दर्शन समझा जा सकता है? क्या अमीरों को लूटने से आर्थिक समानता लाई जा सकती है? क्या बंदूक से कोई रास्ता निकल सकता है? दंतेवाड़ा से कुछ दूर बस्तर है। जनजातियां डाके नहीं डालतीं, बस उनके जंगल हड़प लिए जाते हैं। एक दौर में बंगाल में पढ़े-लिखे लोगों ने हिंसक नक्सलवाद चलाया था।

गोविंद निहलानी की फिल्म ‘हजार चौरासी की मां’ नक्सलवाद पर है। चंबल के डाकुओं ने भी आत्मसमर्पण किया था। यूरोप का सिसली और भारत के चंबल क्षेत्र से आए कुछ लोगों ने अपराध किए और डाके डाले। सिसली के किसान बेहतर अवसर के लिए अमेरिका गए, परंतु दरवाजे बंद मिले, तो उन्होंने संगठित अपराध घराने की स्थापना की। चंबल में छुप जाना आसान है। दंतेवाड़ा के घने जंगल भी व्यक्ति को छुपाए रख सकते हैं। अमेरिका में न चंबल है और न ही दंतेवाड़ा, परंतु संगठित अपराध उसी एलरोडो में पनपा।

दरअसल ये सारी बातें आर्थिक असमानता की खाई से निकलती हैं। यह बात गणतंत्र प्रणाली की कमतरी को रेखांकित करती हैं कि एक तर्कहीन व भावनाहीन, अमेरिका में उच्च पद पर जा पहुंचा। पूरे विश्व में पागलपन की हवा में आम आदमी की बदहवासी और तर्क को तिलांजलि देने से इस तरह के हुक्मरान सत्ता पर काबिज हो गए। किसी भौगोलिक परिस्थिति या किसी आबोहवा से अपराध प्रवृत्ति जन्म नहीं लेती। सर्वव्यापी जहालत के केलिडोस्कोप में रंगारंग आकृतियां उभरती हैं, परंतु जिस दिन रंगीन कांच का टुकड़ा आंख की ओर चल पड़ेगा होश फाख्ता हो जाएंगे। विज्ञान व टेक्नोलॉजी के शिखर समय में तर्कहीनता की जंगल घांस चहु और फैल रही है।

दंतेवाड़ा प्रकरण को एक काल्पनिक कथा से समझने का प्रयास करें। एक जिलाधीश दंतेवाड़ा दौरे पर था। वह जंगल में अपने सुरक्षा दल से दूर चला आया, मानो, जंगल में बजती बांसुरी की ध्वनि के मोहपाश मेंं खिचता गया। माओवादियों ने उसका अपहरण कर लिया। माओवादी नेता ने कैद में जिलाधीश से कहा कि वह सभी जगह घूम सकता है, परंतु भाग नहीं सकता। जंगल का हर वृक्ष एक गार्ड है और पशु-पक्षी निगाह रखे हुए हैं। जिलाधीश के लिए एक करोड़ रुपयों की फिरौती मांगी गई। मंत्री महोदय दुविधा में थे कि अगर आला अफसर के लिए फिरौती दी, तो व्यवस्था की पोल खुलेगी। अगर उसे वहां मरने दिया, तो सरकार की नाक कटेगी।

मंत्री जी ठहरे जुगाड़ू। उन्होंने अपने साथी को अपनी रिश्वत की कमाई दी और फिरौती देकर जिलाधीश को छुड़ाने भेजा। माओवादी नेता ने रिश्वत की फिरौती अस्वीकार कर दी लेकिन जिलाधीश को छोड़ दिया। अगले दिन खूब प्रचारित किया गया कि मंत्री जी अपने साहस से दंतेवाड़ा के चक्रव्यूह में घुसे व अपने अफसर को छुड़ा लाए। कुछ समय बाद माओवादी नेता पुलिस द्वारा पकड़ा गया। जब जिलाधीश दंतेवाड़ा में स्वतंत्र कैदी था, तब रक्षा बंधन के अवसर पर माओवादी की बहन ने उसे राखी बांधी थी। उसके पर्स में रखी, राखी के धागे में कच्चा, रिश्ता ये पक्का’ उसे बार-बार शर्मिंदा कर रहा ता। जुगाड़ू मंत्री के साथ काम करते हुए, आला अफसर ने भी एक जुगाड़ यह की कि पेशेवर कैदियों के कान में मंत्र फूंका और फिल्म ‘द श्वासहैंक रिडेम्पशन’ की तर्ज पर माओवादी सरगना को जल से भगा दिया गया। फिल्म गीत की पंक्ति- ‘विरह ने कलेजा यूं छलनी किया, जैसे जंगल में बांसुरी पड़ी हो’।

चेहरे पर खुशी का प्लास्टर सुभाष कपूर की फिल्म ‘जॉली.एल.एल.बी’ के प्रारंभिक दृश्य में एक व्यक्ति छात्रों को नकल करा रहा है। वह शिक्षा परिसर के बाहर लाउड स्पीकर का उपयोग कर रहा है। राजकुमार हीरानी की ‘मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस’ में भी ईयर फोन से नकल कराई जाना प्रस्तुत किया गया है। यह आश्चर्य की बात है कि व्यवस्था द्वारा घोषित शिक्षा प्रणाली बनाने वालों ने नकल की समस्या पर गौर नहीं किया। हत्या, दहेज इत्यादि भी प्रतिबंधित हैं, परंतु हत्याएं हो रही हैं और दहेज लिया-दिया जा रहा है। समाज अपनी भीतरी ऊर्जा से सुधरते हैं। निद्रा में लीन आम आदमी को ही खुद जागकर अन्य को जगाने की पहल करनी होगी, योंकि महात्मा गांधी बार-बार अवतार नहीं लेते। यह कहा जा रहा है कि नकली करेंसी नोट बाजार में है। नकल उद्योग इतना विकसित है कि डीमॉनीटाइजेशन के बाद कुछ ही दिनों में नई करेंसी की नकल भी बाजार में आ गई। अर्थशास्त्र का नियम है कि खोटी मुद्रा असली मुद्रा को बाहर खदेड़ देती है। यह सभी क्षेत्रों में हो रहा है। हमारे फिल्मकारों ने हॉलीवुड की फिल्मों की प्रेरणा से फिल्में बनाईं और नकल को नया नाम प्रेरणा दिया गया।

फिल्मी गीतों में तो दशों-दिशाओं से आवाजे आती रही हैं। हॉलीवुड फिल्मों के पात्र ओव्हर कोट पहने प्रस्तुत किए गए, तो हमारे पात्र मुंबई की ग्रीष्म ऋतु में भी ओव्हर कोट पहने प्रस्तुत किए गए। नकल के लिए भी थोड़ी सी अल लगानी पड़ती है। कुछ वर्ष पूर्व चीन के छात्रों ने प्रदर्शन किया कि नकल उनका जन्म सिद्ध अधिकार है। यूं महान लोकमान्य तिलक के नारे की भी नकल हुई। अरसे पहले पंजाब के कुछ छात्र परीक्षा स्थगित करने की मांग कर रहे थे। पढऩे वाले छात्रों ने नारा दिया ‘साडा हक इत्थे रख।’ इरशाद कामिल ने इसका विवरण दिया है। उस दौर में नकल इतनी सर्वव्यापी नहीं थी। नकली चेहरे लगाने के कीमिया का विवरण बाबू देवीकीनंदन खत्री ने किया है। खत्रीजी के रचे अय्यार पात्र चेहरे बदलना जानते थे। यह प्लास्टिक शल्य क्रिया के पहले की बात है। निदा फाजली ने लिखा है- ‘औरों जैसे होकर भी बाइज्जत हैं इस बस्ती में, कुछ लोगों का सीधापन है, कुछ है अपनी अय्यारी भी।’ शैलेंद्र लिखते हैं- ‘असली नकली चेहरे देखे, दिल पर सौसौ पहरे देखे, मरे दुखते दिल से पूछो, क्या-क्या वाब सुनहरे देखे।’ टेनोलॉजी का उपयोग अपराधियों ने भी किया।

सरकार की खरीदी टेन्डर प्रक्रिया द्वारा की जाती है। इसमें समय लगता है। इसीलिए अपराध जगत टेनोलॉजी का लाभ सख्य समाज से पहले ही उठा लेता है। निर्देशक शिवम नायर की तापसी पन्नू अभिनीत फिल्म ‘नाम शबाना का’ में खलनायक प्लास्टिक सर्जरी द्वारा अपना चेहरा बदल लेता है। हांगकांग में जन्में फिल्मकार जान वू ने हॉलीवुड में चेहरे बदलने की बात की प्रेरणा से ‘फेस ऑफट फिल्म का निर्माण किया था। समय के साथ मनुष्य का चेहरा व शरीर बदलता रहता है। मनुष्य की विचार शैली भी इस परिवर्तन के लिए कुछ हद तक उत्तरदायी है। चेतन आनंद की फिल्म ‘कुदरत’ के लिए कतील शिफाई का गीत है-‘सुख-दुख की हरेक माला कुदरत ही पिरोती है, हाथों की लकीरों में जागती सोती है।Ó सरोश मोदी पहले फिल्म मेकअप करने वाले थे, जिन्होंने अमेरिका से विद्या का ज्ञान प्राप्त किया। वर्तमान में प्रोस्थेटिस मेकअप करने और उसे उतारने में 5 घंटे लगते हैं। 2 घंटे तक कलाकार काम करता है, योंकि ये सारा समय वह कुछ खा नहीं सकता। स्ट्रॉ से जूस पी सकता है। वर्तमान में अधिकांश लोग अपने चेहरे पर खुशी का प्लास्टर चढ़ाए हैं, योंकि दुखी दिखने की इजाजत नहीं है। दुखी होने का अर्थ व्यवस्था की आलोचना मानी जाती है। कभी- कभी चेहरे का यह प्लास्टर उखड़ जाता है।

जयप्रकाश चौकसे 
(लेखक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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