गाँधी-गोडसे … पर इतनी गर्मी क्यों चढ़ती है?

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प्रज्ञा ठाकुर ने नाथूराम गोडसे को ‘देशभक्त’ कहा, तो उन पर हमलों की बौछार हो गई। लेकिन यहाँ देश तोड़ने वाले जिन्ना, आतंकवादी मुहम्मद अफजल, आदि को सम्मानजनक सम्बोधन दिकिया जाता है – जिन के सिर पर हजारों निर्दोष लोगों का खून है। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के नारे लगाने को अभिव्यक्ति स्वतंत्रता कहा जाता है। दूसरी ओर, इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी के हत्यारों को कभी नहीं कोसा जाता। तब केवल प्रज्ञा या गोडसे से घृणा दिखाना बेतुका है।

इसलिए भी क्योंकि जिस तरह सारे देशद्रोही हत्यारे नहीं होते। विदेशी शत्रुओं, आई.एस.आई., आदि के लिए काम करने वाले यहाँ के एजेंट देशद्रोही हैं, पर हत्यारे नहीं। उसी तरह, नाथूराम गोडसे हत्यारा था, मगर देशद्रोही नहीं था। बल्कि हिन्दू शास्त्र-पुराणों के अनुसार तो वध करना धर्म का अंग भी हो सकता है। स्वयं योगी श्रीअरविन्द ने हाल में भी यही कहा है।

प्रज्ञा के बयान के बाद कांग्रेस नेता कमलनाथ ने भाजपा को चुनौती दी कि वह गाँधी के साथ है, या गोडसे के? मगर कांग्रेस से भी पूछना चाहिए कि राजीव गाँधी के हत्यारों और उस के परिवार के प्रति कांग्रेस नेतृत्व के सदभाव प्रदर्शन का क्या अर्थ है? वही सदभाव नाथूराम गोडसे के परिवार और सहानुभूति रखने वालों के प्रति भी सहज समझना चाहिए।

लेकिन असल प्रश्न है – जानकार लोगों में कितने गोडसे से सहानुभूति रखते हैं? दो पीढ़ी पहले तक हिन्दूवादियों में अधिकांश गोडसे से सहानुभूति रखते थे। आज भी उन की संख्या अच्छी है। वे सभी सामान्य लोग हैं, कोई जुनूनी नहीं। किसी से सहानुभूति का अर्थ उस के हर काम का समर्थक होना नहीं होता। विशेषकर, जब वह व्यक्ति सत्तर साल पहले मर चुका, और जिस की विरासत से कुछ लाभ न मिलना हो। सो गोडसे को देशभक्त कहना एक सामान्य विचार है।

इसलिए प्रज्ञा ठाकुर को बुरा-भला कहना राजनीति-प्रेरित लगता है। इस में सचाई छिपाने की जिद है। गोडसे को देशभक्त समझने वाले अनेक बड़े लोग भी थे। देशभक्ति हत्या में नहीं, बल्कि उस के पीछे की भावना में थी – इस पर पर्दा नहीं डालना चाहिए। गोडसे केस की सुनवाई करने वाले जज, पंजाब के पूर्व चीफ-जस्टिस, जी.डी. खोसला ने अपनी छोटी सी पुस्तक ‘मर्डर ऑफ महात्मा’ में पूरे छः पेज (पृ. 42-47) पर गोडसे के बयान के महत्वपूर्ण अंशों को स्थान दिया है।

जैसे, ‘‘यदि अपने देश के प्रति श्रद्धा रखना पाप है, तो मैं स्वीकार करता हूँ कि मैंने पाप किया है।’’ फिर, गोडसे की अंतिम इच्छा कि ‘‘यह देश जिसे सही हिन्दुस्तान नाम से जाना जाता है वह पुनः एक हो, और इस के लोगों को पराजित मानसिकता त्यागने की सीख मिले जिस से वे आक्रामकों के सामने समर्पण कर देते हैं। यही मेरी अंतिम इच्छा और भगवान से प्रार्थना है।’’

इस पर जस्टिस खोसला ने अपनी टिप्पणी नहीं की है। पर उन्होंने कई स्थलों पर गोडसे के वक्तव्य को सकारात्मक रूप में प्रभावशाली (‘मूविंग’) कहा है। जो स्वीकृति ही लगती है। विशेषकर इसलिए, क्योंकि जब उन्हें लगा कि गोडसे को बोलने से रोकें, क्योंकि वह केस से हट कर अनावश्यक बातें बोल रहा था, तो उन के साथी जजों ने रोका कि गोडसे को बोलने दें।

परन्तु उन की पुस्तक के अनुसार गाँधी-हत्या की पृष्ठभूमि में देश का विभाजन और बड़ी संख्या में नरसंहार व विस्थापन से हुआ राष्ट्रीय उद्वेलन था। जस्टिस खोसला आरंभ में दस पृष्ठों में उन घटनाओं, दुःखद स्थितियों का विस्तृत वर्णन देते हैं जो विभाजन से पैदा हुईँ। उस में समाजिक, प्रशासनिक समस्याएं भी हैं, जिस में जस्टिस खोसला द्वारा उठाई जिम्मेदारियों का भी उल्लेख है। वे स्वयं भी गाँधीजी से मिलने गए थे। उन्होंने पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपये दिलाने के लिए गाँधीजी के अंतिम अनशन का भी वर्णन किया है, जिस से झुककर भारत सरकार ने पाकिस्तान को रूपये दे दिए। इस ‘आत्मसमर्पण’ से देश में हुई असहज प्रतिक्रिया को भी नोट किया गया है। यह सब गाँधी-हत्या की पृष्ठभूमि दिखाता है, ताकि गोडसे को सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। इस का यह अर्थ तो नहीं कि जस्टिस खोसला ‘गोडसेवादी’ थे। बल्कि उन्होंने फाँसी जाते समय गोडसे के साथी नारायण आप्टे को अधिक दृढ़ और सहज बताया है।

अतः गोडसे को ‘मतांध ह्त्यारा’, ‘विकृत-मस्तिष्क’, आदि कहने वाले छिपाते हैं कि यदि गोडसे वैसा होता तो हत्या की सुनवाई करने वाले जज और अदालत में उपस्थित लोगों में सहानुभूति नहीं होती। जस्टिस खोसला के अनुसार यदि उन लोगों को फैसला देने कहा जाता तो उन्होंने ‘भारी बहुमत से’ गोडसे को ‘निर्दोष’ करार दिया होता। (पृ. 48)

इस की तुलना में तो प्रज्ञा ठाकुर ने कुछ नहीं कहा है! तब उन पर चढ़ने का अर्थ है कि इतिहास को छिपाए रखा जाए। आखिर, अदालत में दिए गोडसे के वक्तव्य को भी प्रकाशित करने पर दशकों तक प्रतिबंध लगा रहा। जबकि सुनवाई खुली अदालत में हुई थी। तब गोडसे के वक्तव्य में ऐसी क्या बात थी?

जैसा जस्टिस खोसला द्वारा गोडसे के लंबे-लंबे उद्धरणों से समझा जा सकता है, गोडसे की बातें गंभीर और तथ्यपूर्ण थीं। यदि वह प्रलाप होता तो उसे प्रकाशित करने पर प्रतिबंध अनावश्यक था। कोई भी पढ़कर समझ लेता कि गोडसे पागल था। वह वक्तव्य आज सुलभ है। पर गोडसे को नीच, अधम, कहने वाले उस के वक्तव्य से कुछ उद्धृत नहीं करते!

यदि भारत में अमेरिकी पियु रिसर्च सेंटर जैसी कोई चीज होती, तो वह सर्वेक्षण करके देख सकती थी। कि गाँधी-राजनीति के रिकॉर्ड को भरपूर छिपाने (ताजा उदाहरणः सन् 2019 गाँधीजी के पहले सब से बड़े राजनीतिक अभियान – ‘खलीफत आंदोलन’ – की शताब्दी है; पर उसे गंदे घाव जैसा छिपाया जा रहा है!), भारी बनाव-छिपाव और सत्ता-प्रायोजित अहर्निश प्रचार के बाद भी गाँधी-गोडसे पर तुलनात्मक जन-अनुभूति क्या है? यदि हम लोकतंत्र हैं, तो प्रज्ञा ठाकुर से असहमत नेताओं को उन से शास्त्रार्थ करना चाहिए, न कि लानत-मलानत।

इधर संसद में डीएमके नेता ए. राजा ने भी गोडसे के वक्तव्य का उल्लेख किया कि वह बत्तीस वर्षों से गाँधी से क्षुब्ध था। क्या वह निजी खुन्नस, या अकेले पागल का क्षोभ था? सच तो यह है कि अगस्त 1947 के बाद पंजाब, बंगाल और कश्मीर से जान बचा कर आए लाखों हिन्दू-सिख गाँधी से तीव्र घृणा करते थे। विश्व-प्रसिद्ध प्रकाशक, हिन्द पॉकेट बुक्स के संस्थापक दीनानाथ मल्होत्रा ने अपनी ‘भूली नहीं जो यादें’ (2007) में लिखा है कि जब गाँधी-हत्या की पहली खबर आई, तो सब ने मान लिया कि जरूर किसी सिख ने उन्हें मार डाला। गाँधी के प्रति ऐसा व्यापक क्षोभ कोई गलतफहमी नहीं थी। उस में देश का बहुत कुछ लुटने, और बहुत बड़ा धोखा खाने का दुःख था, जिस के मुख्य जिम्मेदार गाँधी थे। उन्होंने विभाजन रोकने के लिए अपनी जान दे देने का वचन अचानक तोड़कर लाखों पंजाबियों, बंगालियों के साथ भारी विश्वासघात किया था। वे गाँधी और कांग्रेस के भरोसे निश्चिंत थे, और इसीलिए उन्होंने प्रतिकार या बचाव की कोई तैयारी नहीं की थी। जबकि वे सबल, समृद्ध, सुशिक्षित लोग थे।

इसीलिए, डॉ. लोहिया ने लिखा कि देश-विभाजन और गाँधी-हत्या ‘‘एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक पहलू की जाँच किए बिना दूसरे की जाँच करना समय की मूर्खतापूर्ण बर्बादी है।’’ इस का भी यही अर्थ है कि देश विभाजन की जाँच न कर, केवल गोडसे को ‘हिन्दू सांप्रदायिक’ प्रचारित करने में राजनीति है। क्योंकि वह जाँच गोडसे को देशभक्त ही मानेगी। चाहे उस के द्वारा की गई हत्या कितनी ही अनुचित रही हो।

बल्कि, गाँधी-हत्या पर बेहिसाब आक्रोश दिखाना, और विभाजन में औचक मारे गए लाखों निरीह हिन्दू-सिखों की हत्या और बेहिसाब जुल्म, अपमान पर चुप्पी रखना अधिक लज्जास्पद है। यह ऐसा करने वाले मंदबुद्धि, अज्ञान और नैतिक भैंगेपन से ग्रस्त हैं।

शंकर शरण
लेखक स्तंभकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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