..खुद को घाव सगाने की प्रवृत्ति पकी

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राजनीतिक समीक्षकों को यह देखकर अफसोस के साथ-साथ ताज्जुब हो रहा होगा कि जो कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर लंबे अरसे से एक अध्यक्ष नहीं बना सकी है, उसने पंजाब में एक अध्यक्ष और चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाए हैं। पंजाब को अगर हांडी के एक चावल की तरह देखा जाए तो पता लग सकता है कि कांग्रेस के भीतर क्या पक रहा है? कांग्रेस के भीतर अपने ही बदन पर घाव लगाने की प्रवृत्ति पक रही है। गनीमत है कि बेरोकटोक चल रही अंतरकलह के बावजूद इस समय कांग्रेस अकाली दल से बहुत आगे है, वरना पार्टी के आलाकमान ने अपनी ही सरकार और संगठन का कबाड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। पंजाब की यह अंतरकलह कहां से आई? इसकी मैन्यूफेचरिंग पंजाब में नहीं, बल्कि दिल्ली में हुई है। कौन नहीं जानता कि नवजोत सिंह सिद्धू मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के सामने एक पल नहीं टिक सकते, अगर उनकी पीठ पर राहुल, प्रियंका और सोनिया गांधी का हाथ न हो।

सिद्धू जब अमृतसर से भाजपा के सांसद थे, तो उनकी हैसियत क्या थी? क्या वे पंजाब भाजपा के कोई बड़े नेता थे? वे सिर्फ एक मुखर नेता थे जो अलंकारिक भाषा बोलने में माहिर थे। इसके बाद उन्होंने आम आदमी पार्टी में जाने की कोशिश की। जब वहां उनकी पटरी नहीं खाई तो वे कांग्रेस में चले गए। कांग्रेस का आलाकमान अमरिंदर सिंह की खुदमुतारी से अनमना रहता है। इसलिए उसने सिद्धू को शह देनी शुरू कर दी। यह देखकर अमरिंदर सिंह विरोधी खेमा भी सिद्धू के साथ जुड़ गया। अब हालत यह है कि सिद्धू दिल्ली जाते हैं, गांधी परिवार से मिलने से पहले प्रेस से बात करते हैं, और मिलने के बाद फिर प्रेस से बात करते हैं। यह राजनीतिक सर्कस लगातार चल रहा है। कांग्रेस अपनी संभावनाएं कमज़ोर कर रही है। पंजाब के मतदाता हैरत में हैं कि यह हो या रहा है। अगर पंजाब के चुनाव में कांग्रेस जीतते-जीतते रह गई तो इसका ठीकरा अमरिंदर सिंह के दरवाज़े पर नहीं बल्कि आलाकमान के दर पर फूटेगा। एक ऐसे समय में जब हर चुनावी प्रदेश में कांग्रेस की शतियों को पूरी तरह से एकताबद्ध होना चाहिए, पंजाब में उसका उल्टा हो रहा है।

जिन हरीश रावत को इस समय उत्तराखंड में कांग्रेस की उज्ज्वल संभावनाओं को साकार करने में लगा होना चाहिए, वे पंजाब में जल रही आग पर पानी डालने में व्यस्त हैं।कांग्रेस अगर अपने पत्ते ठीक से खेले, तो इन राज्यों में अच्छा प्रदर्शन करके अपना मनोबल बहुत बढ़ा सकती है। गुजरात, उत्तराखंड, पंजाब, हिमाचल और गोवा में वह दो मुख्य ताकतों में से एक है। इनमें से उसे चार चुनाव जीतने का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। गुजरात में कड़ी चुनौती पेश करनी चाहिए। उत्तर प्रदेश में वह बहुत पीछे है, लेकिन चतुर रणनीति के ज़रिये वह भाजपा के ऊंची जातियों के आधार में सेंध लगाकर उसे नुकसान पहुंचा सकती है। कांग्रेस करो या मरो के दौर में पहुंच चुकी है। राहुल गांधी ने कहा है कि जो लोग भाजपा में जाना चाहते हैं, वे चले जाएं। यह बात ठीक है। लेकिन जो लोग भाजपा में नहीं जाना चाहते, पार्टी में ही रहना चाहते हैं, उनके लिए संगठन के अघोषित मुखिया के रूप में राहुल गांधी के पास या है? इस सवाल का जवाब कौन देगा?

अभय कुमार दुबे
(लेखक सीएसडीएस, दिल्ली में प्रोफेसर और भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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