किसान का कैसे बढ़ेगा सम्मान?

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गरीबी को लेकर हाल ही में जारी संयुक्त राष्ट्र की रपट ने न्यू इंडिया की ओर बढ़ रहे भारत के प्रयासों पर मुहर लगा दी है। इस रपट का सार बतातात है कि भारत में स्वास्थ्य, स्कूली शिक्षा समेत विभिन्न क्षेत्रों में विकास से लोगों को गरीबी से बाहर निकालने में भारी प्रगति हुई है। इससे वर्ष 2006 से 2016 के बीच 27 करोड़ से अधिक लोग गरीबी से बाहर आने में सफल रहे है। इन आंकड़ो पर हर भारतीय नागरिक को गर्व होना चाहिए लेकिन मोदी सरकार को इस उपलब्धि पर ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। यह रपट जिस अध्ययन के आधार पर तैयार की गई है उसमें मोदी सरकार के सिर्फ दो साल के आंकड़े शामिल हैं। इसकी अधिकतम उपलब्धि यूपीए नीत मनमोहन सरकार के खाते में जाती है। यह कटु सत्य है कि देश की करीब दो तिहाई आबादी गांवों में रहती है जिसकी रोजी-रोटी खेतीबाड़ी पर निर्भर है। जाहिर है कृषि क्षेत्र के विकास के बिना भारत से गरबी दूर नहीं हो सकती। इसी को देखते हुए मोदी सरकार ने अपनी पहली पारी में वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने का लक्ष्य रखा था। लेकिन इस दिशा मे अभी तो जो प्रगति हुई है उसे देखकर यही लगता है कि यह लक्ष्य पूरा नहीं हो पाएगा।

दरअसल मोदी 2.0 सरकार के पहले बजट से कृषि क्षेत्र को बड़ी उम्मीदें थी। चुनाव से पहले जिस तरह किसानों के लिए सालाना 6000 रुपये की प्रत्यक्ष सहायता योजना की घोषणा की गई और चुनाव से ऐन वक्त पहले इस में सभी श्रेणी के किसानों को शामिल किया गया, इससे उम्मीद की किरण जगी थी। वैसे भी फिलहाल देश का बड़ा हिस्सा सूखे की चपेट में है। घरेलू अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर से गुजर रही है। ऐसे में कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में जाने फूंकने की जरूरत है। लेकिन बजट में किसानों की उम्मीदों को भारी झटका लगा है। किसानों की आय बढ़ाने, उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने, खेती को फायदेमंद बनाने और किसानों की आत्महत्याएं रोकने जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए इस बजट में कारगर उपाय नहीं किए गए हैं। घोषणाओं के नाम पर चालू वित्त वर्ष में कृषि मंत्रालय के आवंटन को 87 फीसद बढ़ाकर 1.39 लाख करोड़ रुपये कर दिया है। इसमें से 75,000 करोड़ रुपये की राशि सरकार की प्रधानमंत्री किसान योजना के लिए है। इसके अलावा सरकार ने चालू वित्त वर्ष में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के लिए आवंटन को बढ़ाकर 14,000 करोड़ रुपये करने का भी फैसला किया है। देखने में ये आंकड़े भले ही भारी-भरकम लगे सकते हैं लेकिन हकीकत यह है कि देश के कुल बजट आवंटन में कृषि क्षेत्र का हिस्सा दो फीसद से भी कम है। ऐसे में किसान की माली हालत सुधर पाएगी अस पर संशय है।

आम चुनाव से पहले सरकार ने अमूल की सफलता को देखते हुए देश में 10,000 सहकारी समितियां बनाने का ऐलान किया था ताकि किसानों की आय बढ़ाई जा सके। इसी तरह कृषि से जुड़े उद्यमों में निजी विनेश बढ़ाने का खाका पेश किया गया था। कृषि क्षेत्र में नए उद्यमी और प्रोद्योगिकी आए यह अच्छी बात है लेकिन बजट में इस पर कोई गैर नहीं किया गया है। बजट में किसान सम्मान योजना को लेकर जरूर चर्चा हुई लेकिन इसका श्रेय केन्द्र सरकार पहले ही ले चुकी है और चुनाव में इसे भुनाया भी जा चुका है। इसके आगे बजट में कुछ नहीं है। ऐसा लगता है कि सरकार कृषि क्षेत्र और किसानों की सभी मुश्किलों का समाधान 6000 सालाना मजज के भरोसे छोड़कर चिंतामुक्त हो गई जबकि किसानों की हालात सुधारने के अलावा अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाना जरूरी है। अपने चुनावी घोषणा-पत्र में भाजपा ने कृषि और ग्रामीण विकास के लिए 25 लाख करोड़ रुपए के निवेश की हात कही थी लेकिन बजट में इस मुद्दे पर कोई चर्चा नहीं हुई है। सरकार ने किसानों को जड़ों की तरफ लौटने और जीरो बजट खेती अपनाने का मंत्र दिया है। इसमें कोई दोराय नहीं कि रासायिक खाद और कीटनाशक के बिना प्राकृतिक आधार पर खेती करने के कई फायदे हैं लेकिन बहुत कम लोग इस परंपरा को अपना रहे हैं।

ऐसे में सवाल ये है कि आखिर लागत जीरो होने के बावजूद किसानों ने अभी तक इसे अपनाया क्यों नहीं, कोई किसान भला कर्ज लेकर रसायनिक खाद क्यों खरीदना चाहेंगा, जीरो बजट वाली खेती कौन नहीं करना चाहेगा? सरकार को हर हाल में इन सवालों के जवाब तलाशने चाहिए। हालांकि खेती में रायायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल घटाना पर्यावरण स्वास्थ्य और लागत घटाने के लिए जरूरी है इसलिए जैविक या पारंपकि खेती को बढ़ावा मिलाना चाहिए। लेकिन यह काम किसानों को सिर्फ सुझाव या सलाह देने से ही नहीं होगा। बजट में सरकार ने यही किया। एक तरफ किसानों को जीरो बजट खेती अपनाने की सलाह दी तो दूसरी तरफ रसायनिक खाद पर सब्सिडी 70,000 करोड़ रुपये से बढ़ाकर करीब 80,000 करोड़ रुपये कर दी। इससे साफ जाहित होता है कि सरकार यही मान रही है कि जीरो बजट फार्मंग एक जुमला है। वास्तव में रासायिक उर्वरकों का इस्तेमाल बढ़ेगा। फिर परंपरागत खेती को बढ़ावा कैसे मिलेगा? जीरो बजट खेती को बढ़ावा देवे के लिए सरकार ने जीरो बजट रखा है। बही-खाते में इसके लिए अलग से कोई पावधान नहीं है।

जबकि खेती के लिए नए तौर-तरीके को करोड़ो किसानों तक पहुंचाना, उन्हें समझाना बड़ा काम है। परंपरागत खेती को बढ़ावा देने वाली केन्द्र सरकार की एकमात्र योजना का बजट 300 करोड़ रुपये है जिसे बढ़ाकर 325 करोड़ रुपये किया गया है। सवाल यह है कि 25 करोड़ का आवंटन बढ़ाकर 14 करोड़ किसानों को जीरो बजट खेती कैसे सिखाई जा सकीत है? मोदी सरकार ने भारत को वर्ष 2024 तक पांच खरब डालर की अर्थव्यवस्था बनाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है जिसे ग्रामीण क्षेत्र के विकास के बिना किसी भी सूरत में हासिल नहीं किया जा सकता। चिंता की बड़ी बात यह है कि देश की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की भागीदारी घटती जा रही है। वर्ष 2004 से 2011 के बीच करीब दो करोड़ किसान खेती छोड़ चुके हैं। नीति आयोग का अनुमान है कि 2022 तक 13 फीसद से अधिक किसान खेती से बाहर हो जाएंगे। वर्ष 2014 -18 के बीच देश में कृषि क्षेत्र का सकल उत्पादन महज 2.9 करोड़ बढ़ा और किसानों की आय में सिर्फ दो फीसद की वार्षिक वृद्धि हुई।

रावीज सिंह
लेखक कार्वी स्टाक ब्रोकिंग के सीईओ हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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