काबुल धमाके: सतर्कता जरूरी

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काबुल एक बार फिर लहूलुहान है। जिस आतंकवाद से अफगानिस्तान लोहा लेता रहा है, वह और ज्यादा खूंखार हो गया है। अमेरिकी सैनिकों की वापसी और तालिबान के कजे के बाद यह माना जा रहा था कि दो दशक पहले कट्टरता के जुल्म से निकला अफगान एक बार फिर उसी दलदल में फंस गया है, लेकिन काबुल बम विस्फोट ने साफ कर दिया कि वहां के हालात इससे कहीं ज्यादा गंभीर हैं। मानवाधिकार, महिला सुरक्ष से कहीं ज्यादा बड़ा प्रश्न जीवन का है। इतने बड़े हमले का सीधा अर्थ यही है कि आतंकी न सिर्फ मुल्क की शांति-व्यवस्था को कमजोर करना चाहते हैं, बल्कि उनकी मंशा जातीय व धर्म की खाई को और गहरा करने की है। आईएस लगातार तालिबान की खिलाफत करता रहा है। वह उसे अमेरिका का रीढ़ कहता रहा है। तालिबान भी यह संकेत देता है कि अफगानिस्तान से इस्लामिक स्टेट खत्म हो चुका है और पूरे अफगान पर उन्हीं का राज है। यह हमला इस बात का भी संकेत है कि आईएस को कमजोर समझना बड़ी भूल होगी। एक के बाद एक हुए विस्फोट ये भी बताते हैं कि तालिबानी चरमपंथी अंदरूनी गुटबाजी के शिकार हो चले हैं और अतर मंसूर की मौत के बाद उनकी धार कमजोर हुई है।

हालांकि अफगानिस्तान पहले की तरह ही आज भी अस्थिर है। कम से कम दो वजहों से इस हमले पर संजीदा होना चाहिए। पहला यह कि इस्लामिक स्टेट ने इस हमले की जिम्मेवरी ली है। कहा गया है कि आईएस कमांडर ने आत्मघाती आतंकी को नांगरहार प्रांत से भेजा था। हमले के पीछे इस्लामिक स्टेट का एकमात्र उद्देश्य यही नजर आता है कि वो अपनी मौजूदगी का अहसास करवाना चाहता है। अमेरिकी सेना की वापसी और राष्ट्रपति अशरफ गनी के देश छोडऩे के बाद से यही माना जा रहा है कि अब पूरा Þ अफगानिस्तान तालिबान के कजे में है और वही शासन करेंगे। एक तरफ तालिबान लाख प्रयासों के बाद भी पंजशीर के लड़ाकों को नहीं दबा पाए हैं। उपराष्ट्रति रहे अदुल्ला सालेह ने जिस तरह पंजशीर पहुंचकर हार नहीं मानने का ऐलान किया और अफगान लोगों में एक बार फिर नॉर्दर्न अलायंस जैसा मोर्चा बना दिया, उससे तालिबान कमजोर पड़ा है। उसके लड़ाके लगातार पांच दिनों तक पंजशीर पर हमले के बावजूद नॉर्दर्न अलायंस का कुछ ज्यादा नहीं बिगाड़ पाए। अव इस्लामिक स्टेट के हमलों ने भी तालिबान की जड़ें हिला दी हैं। केवल तालिबान ही नहीं इन हमलों के बाद पाकिस्तानी शासकों के चेहरे पर चिंता की लकीरें आ गई हैं।

अगर आईएस व टीटीपी मिल गए हैं, तो यह पूरे क्षेत्र के लिए खतरे की घंटी है। पाक विरोधी टीटीपी आतंकी भी यहीं शरण पाते हैं। अफगानिस्तान में तालिबान के कजे के बाद से पाक हुकुमरान गदगद थे। उन्हें लग रहा था कि तालिबान के आने से अफगान उनके लिए न केवल सहज होगा बल्कि भारत के खिलाफ उसे नापाक मंसूबे पूरे करवाने में उसका साथ भी देगा। हालांकि तालिबान ने इस बारे में अभी एक भी शद नहीं बोला। तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने केवल इतना भर कहा कि भारत और पाकिस्तान को एक साथ बैठकर सभी विवादित मुद्दों का समाधान करना चाहिए, लेकिन पाकिस्तान ने कहना शुरू कर दिया था कि वो कश्मीर में उसका समर्थन करेगा। अब इन हमलों के बाद पाक को पहले अपना घर बचाना होगा। उधर, अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा सत्ता पर कजा करने के लिए धीरे-धीरे प्रतिरोध भी बढ़ रहा जोकि नए शासकों और कुछ मायनों में पाकिस्तान में उनके बाहरी समर्थकों और आकाओं के लिए खतरे की घंटी का कारण बनने के लिए पर्याप्त है।

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