कड़वी दवा समझकर इसे बर्दाश्त कर लो दोस्त

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गांव की ऐसी ही एक यात्रा के दौरान पिताजी ने कहा था कि आसमान को अकेले बैठकर निहारना चाहिए। वह काफी कुछ सिखता है। ऐसा प्रयोग आसमान के साथ तो मैंने नहीं किया लेकिन रोजगार के चक्कर में जब मुंबई पहुंचा तो वहां समंदर से जरूर दोस्ती हो गई। उसके साथ अकेले घटों बिताकर भी मैं कभी बोर नहीं हुआ।

पटना से गांव जाना हमेशा सुखकर होता था। दूर-दूर तक फैले खेत और साफ नीला आसमान आंखों को तब भी सुकून देते थे। गांव की ऐसी ही एक यात्रा के दौरान पिताजी ने कहा था कि आसमान को अकेले बैठकर निहारना चाहिए। वह काफी कुछ सिखता है। ऐसा प्रयोग आसमान के साथ तो मैंने नहीं किया लेकिन रोजगार के चक्कर में जब मुंबई पहुंचा तो वहां समंदर से जरूर दोस्ती हो गई। उसके साथ अकेले घटों बिताकर भी मैं कभी बोर नहीं हुआ। रिश्तों में उपजी गलतफहमी हो या दिल टूटने का अनुभव या करियर पर मंडरा रहे अनिश्चितता के बादल मुंबई के उस दस वर्षों में हर अहम मौके पर समंदर ने मेरा साथ दिया। अब दिल्ली में समंदर नहीं है। पिता के शब्दों के सहारे मन कभी आसमान की ओर जाता है, मगर रोजमर्रा की मारा-मारी और बहुमंजिला फ्लैट में रहने की मजबूरी ऐसा अवसर नहीं देती कि खुद को आसमान से इंट्रोड्यूस करुं।

हां जिन्दगी हर मजबूरी में कोई विकल्प भी छुपाए रहती है। थर्ड फ्लोर पर स्थित फ्लैट की इस जिन्दगी ने मुझे दोस्ती के एक नए आयाम से परिचित कराया। यहां मेरी बालकनी के ठीक सामने आम का एक बड़ा सा पेड़ है। उसकी बगल में उससे भी बड़ा नीम है और थोड़ा हटकर इन दोनों से विशाल एक पीपल का वृक्ष है। मैं बौना हूं इन पेड़ो के सामने, मरग थर्ड फ्लोर के इस फ्लैट में होने की वजह से मेरा कद इनके आसपान का हो गया और इन पेड़ो से मेरा कुछ-कुछ बराबरी का रिश्ता बनने लगा। मैं जैसे-जैसे इनके करीब होने लगा। इनकी दुनिया को इनकी नजर से देखना मेरे लिए संभव हो गया।

अब यह पेड़ मेरा सुख-दुख तो साझा करते ही हैं, अपनी खुशियां और गम भी मेरे साथ बांटते है। इनके ऊपर बैठकर मस्ती में झूलते-गाते तरह-तरह के पंछी, कीट पतंग और इनके ऊपर दौड़ती चीटियां, गिलहरियां आदि इन्हें अपने संतान जैसे लगते है। अपने आगोश में सैकड़ो जिन्दगियां फलती-फूलती देख खुद को परम संतुष्ट महसूस करते है। कभी जब इनकी टहनियां की काट-छांट करने वाले कर्मचारी अपने औजारों के साथ पहुंचकर मुझे भी मायूस कर देती है। तब बेबस सा मैं मसझाता हूं, कड़वी दवा समझकर इसे बर्दाश्त कर लो दोस्त तुम फिर से फूलोगे-फलोगे और ये टहनियां भी अपने दम से दोबारा उगा लोगे। वे ऐसा ही करते हैं और मैं उनके पुरुषार्थ पर गौरवान्वित महसूस करता हूं। दोस्त जो हूं उनका।

प्रणव प्रियदर्शी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

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