ओछे हथकंडे अपना रही घबराई पुलिस

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बात दिसम्बर 1991 की है। प्रदेश में भाजपा की पहली सरकार थी। कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे और पहली बार एक स्थानीय विधायक के रूप में बालेश्वर त्यागी राज्य मंत्री बने थे। उन्ही दिनों लोनी में एक उपचुनाव में पुलिस वालों ने पत्रकार विष्णु दत्त शर्मा पर जीप चढ़ा कर उन्हें कुचलने का प्रयास किया। विष्णु दत्त का क़सूर यह था कि उन्होंने पुलिस को बूथ कैप्चरिंग करवाते हुए देख लिया था। मामले से नाराज होकर जिले भर के पत्रकार मंत्री के निवास के बाहर धरने पर बैठ गए। उन दिनों शैलजा कांत मिश्र गाजिय़ाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे। पत्रकारों की मांग थी कि एसएसपी धरनास्थल पर आयें और बाल बाल बचे पत्रकार विष्णु दत्त से पुलिस की ओर से माफी मांगे । मगर एसएसपी ने इसे अपनी तौहीन समझा और कहा कि मैं वहां नहीं जाऊंगा, जिसे बात करनी हो वह मेरे पास आए। विवाद बढ़ता देख भाजपा के अनेक स्थानीय और राज्य स्तर के नेताओं ने एसएसपी से धरना स्थल पर जाने का अनुरोध किया मगर वे टस से मस नहीं हुए। बालेश्वर त्यागी ने भी पत्रकारों के समक्ष उनसे यह अनुरोध किया। इस पर एसएसपी इस शर्त पर तैयार हुए कि मैं धरना स्थल पर नहीं आपके घर के भीतर आऊंगा और शर्त यह होगी कि आपके समेत भाजपा का कोई नेता वहां मौजूद नहीं होगा।

तय शर्त के अनुरूप जब शैलजा कांत मिश्र आये तो सीधा मंत्री जी के घर के भीतर चले गए और जाकर मंत्री जी की ही कुर्सी पर बैठ गए। चूंकि एसएसपी वहां तक तो आए ही थे अत: हम सभी पत्रकार भीतर गए और तब जाकर ही उनसे सुलह सफाई हुई। उस दिन अहसास हुआ कि विधायिका नहीं कार्यपालिका ऊपर होती है और पुलिस कप्तान के आगे मंत्री विधायक की भी कोई हैसियत नहीं। यह अहसास केवल उस समय ही नहीं हुआ वरन हर बार तब हुआ जब जब प्रदेश में भाजपा की सरकार बनती है । पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या से बेशक ख़ूब हो हल्ला हो रहा हो । तीन दिन से पूरा मीडिया जगत इसे लेकर ग़ुस्से में है और तमाम टीवी चैनल्स व अख़बार इसकी कवरेज से रंगे हुए है और प्रदेश सरकार भी सुरक्षात्मक स्थिति में है। घबराई सरकार पीडि़त परिवार के लिए तरह तरह की घोषणाएं कर रही है मगर स्थानीय पुलिस फिर भी अपनी टेढ़ी चाल चलने से बाज नहीं आ रही। मृतक पत्रकार और उसके परिवार को बदनाम कर पुलिस इस हत्या को अब आपसी रंजिश का परिणाम बताने में लग गई है। हत्यारों के साथसाथ विक्रम जोशी, उनके भाई व उनके परिजनों के खिलाफ भी रिपोर्ट दर्ज कर ली गई है। साबित करने का प्रयास किया जा रहा कि यह सट्टेबाज़ी को लेकर हुए विवाद का मामला था और इसमें दोनों पक्ष बराबर के दोषी हैं।

पता नहीं यह कितना सत्य है मगर कहा तो यही जा रहा है कि ये रिपोर्ट हत्या के बाद पिछली तारीको में पुलिस ने लिखीं ताकि अपने ऊपर आए दबाव को कुछ कम किया जा सके। गाजियाबाद में एक पुलिस कप्तान आये थे जय नारायण सिंह। उन्होंने अपराध कम करने का एक नायाब फार्मूला निकाला था। उसके अनुरूप लूटपाट की किसी शिकायत पर पुलिस पीडि़त को लेकर घटना स्थल पर जाती और लूटपाट के पूरे घटनाक्रम का एशन रिप्ले करती और हर सूरत में साबित कर देती कि पीडि़त झूठ बोल रहा है और ऐसी कोई लूटपाट हुई ही नहीं। कई मामलों में तो पीडि़त को ही यह कह कर जेल भेज दिया कि उसने पुलिस को गुमराह कर झूठी रिपोर्ट लिखवाने की कोशिश की। पुलिस के इस फार्मूले का असर यह हुआ कि अपराध होने के बावजूद लोग पुलिस के डर से रिपोर्ट ही नहीं लिखवाते थे। नतीजा सरकारी रिकार्ड में अपराध का ग्राफ़ गिरने लगा। इसी रोशनी में देखते हुए मैं सोच रहा हूं कि यदि हत्यारे विक्रम की हत्या कर उनकी लाश अपने साथ ले जाते तो शायद पत्रकार के परिजन और उनके तमाम हमदर्द सीसीटीवी फ़ुटेज के बावजूद यह साबित ही नहीं कर पाते कि उनकी हत्या हो गई है । पुलिस तो इसे अवैध संबंध अथवा विवाहेत्तर रिश्तों जैसी किसी कहानी में पिरो देती और कह देती कि वे प्रेमिका समेत फरार हैं। अब यूपी पुलिस है इतना तो कर ही सकती है।

राकेश शर्मा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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