उम्मीदों का खाका

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मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का दूसरा बजट मौजूदा आर्थिक चुनौतियों को कितना संबोधित करने वाला है यह तो वक्त के गर्भ में है। लेकिन इतना जरूर है कि सबके लिए थोड़ा कुछ करने-दिखाने की पूरी कसरत की गई है। वैसे उम्मीद यह थी कि रोजगार को लेकर कोई बड़ी घोषणा होगी। यह ठीक है कि देश को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने की दिशा में मोदी सरकार ने कई कदम उठाए हैं। नौकरियां बढ़े, इसके लिए लाभांश देने पर लगने वाले कर से मुक्त कर दिया है, अब उसे पाने वाला भरेगा जिससे कंपनियां ज्यादा रोजगार दे सकें। आयात शुल्क बढ़ाकर घरेलू उत्पाद के संवर्धन और संरक्षण की कोशिश की गयी है। निर्यात बढ़ाने के लिए गुणवत्ता पर फोकस देने की दिशा में भी कुछ कदम उठे हैं। लेकिन जो चुनौतियां वर्तमान में हैंए उसकी पीड़ा यथावत है। यह ठीक है कि कुछ उपाय दीर्घकालिक होते हैं लेकिन कुछ ऐसा जरूर इस बजट से लोगों ने उम्मीद जताई थी कि कुछ राहत देने वाली घोषणाएं भी होंगी। जिस तरह 4.8 फीसदी जीडीपी दर है और वित्त वर्ष 20-21 में भी 6 फीसदी के भीतर ही रहने का अनुमान है, उससे स्पष्ट है कि आर्थिक सुस्ती दूर होने में अभी समय लगेगा। यह बात और कि मोदी सरकार मानती है कि आने वाले वर्षों में विकास दर 10 फीसदी हो जाएगी। इससे रोजगार के बड़े अवसर पैदा होंगे।

नेशनल रेक्रूटमेंट एजेंसी बनेगी। ऑनलाइन परीक्षाएं होंगी। जिस तरह युवाओं के लिए भविष्य की दृष्टि दी गयी है, उसी तरह किसानों की आय 2020 तक दोगुना होने के वादे को दोहराते हुए कुछ योजनाओं की घोषणा हुई है। कृषि व ग्रामीण विकास के लिए तीन लाख करोड़ का प्रावधान किया गया है। खेती के साथ नये प्रयोगों का खाका खींचने का साहस भी दिखाया गया है। इसी दिशा में कांट्रैक्ट फार्मिंग को प्रोत्साहन दिया जाएगा। सके तहत ऐसे राज्यों में शामिल किया जाएगा जहां कृषि भूमि पट्टा अधिनियम 2016, मॉडल कृषि उत्पाद व पशुधन विपणन अधिनियम 2017 और मॉडल कृषि उत्पाद एवं पशु धन संहिता कृषि सेवाएं अधिनियम 2018 जैसे कानून को लागू करेंगे। इससे कंपनियों को कृषि क्षेत्र में निवेश करने की आसानी होगी। किसानों को अपने उत्पादों का लाभकारी मूल्य मिलेगा, इसके लिए विशेष जिलेवार किसान रेल सेवा और एयरपोर्ट की दिशा में मोदी सरकार ने भरोसा दिया है। बीते 6 वर्षों में किसानों की समस्याएं और गहराई हैं। इसको लेकर कई बार दिल्ली तक आक्रोश मार्च भी हुए हैं। वैसे तो एक अर्से से किसानों के सामने सबसे बड़ा संकट उन्हें अपने उत्पादों की सही कीमत मिलने को लेकर रहा है। इस ओर अब तक की सरकारों ने आधारभूत प्रयासों की जगह फौरी उपायों पर ही ध्यान केन्द्रित रखा।

जबकि देश की गरीब आधी आबादी इसी पर निर्भर है। गेहूं की पैदावार हो या चावल, भारत का दूसरा स्थान है। यही नहीं, फल और सब्जियों के मामले में भी यही स्थिति है। बावजूद इसके मेहनतकश किसानों की माली हालत आज भी चुनावी मुद्दे के इर्दकृगिर्द सीमित है। कर्जमाफी फौरी उपाय तो हो सकता है लेकिन दीर्घकालिक रूप से फायदेमंद नहीं है। बल्कि इससे कर्ज की लत पड़ जाती है। हालांकि माफी का फायदा भी ज्यादातर रसूखदारों के हिस्से पहुंच पाता है। बैंकों की आर्थिक सेहत बिगड़ती है, सो अलग से। बजट की दिशा तो ठीक है, उस पर सवाल नहीं है लेकिन यह उस उम्मीद की अनुरूप नहीं है, जिसकी बाट जोही जा रही थी। लगता है, बिना किसी राजनीतिक दबाव के यह बजट पेश किया गया, इसीलिए लोक – लुभावन घोषणाएं नदारद हैं। नौकरीपेशा लोगों को खासतौर पर आयकर में राहत की बड़ी उम्मीद थी। उसका जिक्र तो है लेकिन कुछ इस तरह की व्यक्ति एक ही तरफ की छूट का हकदार हो सकता है। शेयर बाजार ने भी बजट के प्रति नकारात्मक रुख का प्रदर्शन किया। इस सबसे बेखबर वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का बुनियादी ढांचे पर विशेष जोर यह बताने के लिए पर्याप्त है कि अभी होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव को लेकर कोई विशेष चिंता नहीं है।

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