भाजपा और शिव सेना का चुनावी समझौता विपक्ष के लिए एक झटका-सा है, क्योंकि विपक्षी दल यह आशा लगाए हुए थे कि तीन हिंदी राज्यों में भाजपा अभी हारी ही है और महाराष्ट्र में भी ये दोनों पार्टियां यदि एक-दूसरे का मुकाबला करेंगी तो संसद के चुनाव में मोदी की नाव डूबने को ही है। क्योंकि उप्र के बाद सबसे ज्यादा 48 सीटें इसी प्रदेश में हैं लेकिन भाजपा ने उदारता का परिचय दिया और 48 में से सिर्फ 25 सीटें अपने पास रखीं और 23 सीटें शिव-सेना को दे दीं।
2014 में भाजपा ने 24 सीटें लड़ी थीं और उनमें 23 जीत ली थीं जबकि शिव सेना ने सिर्फ 20 लड़ी थीं और उसमें से 18 जीती थीं। 2019 में शिव सेना को 3 सीटें ज्यादा देकर भाजपा ने अपने गठबंधन को मजबूत बना लिया है। भाजपा ने यह उदारता तब दिखाई है जबकि 2014 के विधानसभा चुनाव में 122 सीटें जीती थीं और शिव सेना को उससे आधी याने 63 सीटें मिली थीं।
यह समझौता इसलिए भी विशेष महत्व का है कि पिछले साढ़े चार वर्षों में शिव सेना ने मोदी सरकार की लू उतारकर रख दी थी। चाहे कोई मामला हो, राम मंदिर का, रफाल का, नोटबंदी का, आतंकी हमलों का, फर्जीकल स्ट्राइक का या गोरक्षा का– शिवसेना ने मोदी सरकार की इतनी तीखी आलोचना की है कि उतनी कांग्रेस ने भी नहीं की है। ऐसा लगता था कि शिव सेना मोदी सरकार और भाजपा के गठबंधन की पार्टी नहीं है बल्कि विपक्ष की सशक्त प्रवक्ता है।
महाराष्ट्र में शिव सेना और बिहार में नीतीश के जनता दल के प्रति इतनी उदारता आखिर भाजपा क्यों दिखा रही है? उसका कारण स्पष्ट है। एक तो सभी प्रदेशों में विरोधी दल चुनावी गठजोड़ बनाने में जुटे हुए हैं और दूसरा बड़ा कारण यह है कि मोदी सरकार की अपनी दाल काफी पतली हो गई है। उसके पास जनता को दिखाने के लिए कोई ठोस उपलब्धि नहीं है सिवाय इसके कि विपक्ष के पास प्रधानमंत्री का कोई निर्विवाद उम्मीदवार नहीं है।
पुलवामा में हमारे सुरक्षा बल के जवानों की सामूहिक हत्या ने मोदी सरकार को और भी ज्यादा दुविधा में डाल दिया है। ऐसे में लचीली या झुककर चलने की नीति ही बेहतर राजनीति है। कोई आश्चर्य नहीं कि इसी नीति का अनुसरण कुछ अन्य प्रदेशों में भी भाजपा करेगी।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है।)