असहिष्षुणता किसके हित में

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असहिष्षुणता किसके हित में ! यह सवाल तो किसी भी देश-समाज के लिए सदैव प्रासंगिक है लेकिन भारतीय सन्दर्भ में इस तरह का सवाल यह सोचने पर विवश करता है कि ये हम कहां आ गए। जिन युवकों ने अभी पिछले दिनों अपनी बात रखने के लिए तमंचा लहराया, क्या वही एक तरीका बचा रह गया है। सवाल उठता है वो कौन सी परिस्थितियां बनीं या बनाई जा रही हैं जिससे एक-दूसरे को लोग दुश्मन के तौर पर ले रहे हैं। सवाल यह भी है कि जो चेहरे सामने हैं वही सच है या फिर इसके पीछे के लोग, जिनका जिक्र नहीं होता लेकिन सूत्रधार होते हैं। यह मसला बेशक दिल्ली के शाहीन बाग से जुड़ा है जहां डेढ़ महीने से नागरिकता के नए कानून को लेकर धरना चल रहा है। वैसे इसमें नागरिकता जनसंख्या रजिस्टर और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर भी जोड़ दिया गया है। विरोध की वजह यह कि इस कानून की आड़ में देश के मुसलमानों को बेदखल कर दिया जाएगा। हालांकि नागरिकता संशोधन कानून भारत के लिए है ही नहीं और नागरिकता रजिस्टर को लेकर कोई आधिकारिक खाका भी सामने नहीं पर देश का विपक्ष यही रट लगाए हुए है।

संसद से पारित किसी बिल का ऐसा विरोध शायद पहली बार हो रहा है। लोकतंत्र है विरोध के औचित्य पर सवाल नहीं उठना चाहिए लेकिन सियासी लाभ के लिए जो साम्प्रदायिक कार्ड खेलने की कोशिश करते हुए सेकुलर होने का दम्भ भरा जा रहा है, यह उसी का नतीजा है कि किशोर युवा मन विध्वंसक भूमिका में दिखने लगे हैं। सोशल मीडिया में तो जहर भरने का पूरा कारोबार चल रहा है। ऐसे वीडियो अपलोड होते हैं जो किशोर मन को बिगाडऩे के काम में लगे हुए हैं। यही नहीं, राजनीतिक पार्टियों के ट्विटर हैंडल पर वो आग उगलते कमेंट पढ़े जा सकते हैं। हालांकि नेता किसी भी पार्टी के हों, इसमें कोई किसी से कम नहीं है। बीजेपी और कांग्रेस का हाल यह है कि इसके नेता बयानों से लोकतंत्र की सेवा करना चाहते हैं। उनकी नजर में सियासी बढ़त बनाना ही सेवा है भले ही देश के ताने-बाने को कितना भी नुकसान पहुंचे। क्षेत्रीय पार्टियों की सीमा समझ में आती है उन्हें ध्रुवीकरण के लिए क्षेत्रीयता से लेकर स्थानीय आकांक्षाओं तक को अपना हथियार बनाना पड़ता है लेकिन राष्ट्रीय फलक पर रहने वाले दलों की यह मजबूरी नहीं होती।

उनके लिए स्थानीय सवाल भी राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के आलोक में होते हैं। हैरत होती है जब राष्ट्रीय दलों के नेता सतही सोच से लैस दिखते हैं। सड़कछाप भाषा तो किसी की भी नहीं होनी चाहिए। इस प्रतिस्पर्धा में जब सत्ता में रहे नेता या मौजूदा मंत्री दिलों में दुराव करने वाली जुबान बोलते हैं तो लगता है अब किससे उम्मीद पाली जाय।ण् मौजूदा वक्त में जो भी चिंतित करने वाले मंजर सामने आ रहे हैं उसके लिए एक हद तक नेता भी जिम्मेदार हैं। माना कि धर्म की आड़ में भी कुछ लोग नफरत का माहौल बनने देने में मददगार होते हैं। लेकिन उन पर जो सत्ता में होते हैं या फिर विपक्ष ऐसी ताकतों को नियंत्रित कर सकते हैं वे जब खुद चुनावी लाभ के लिए शह देते पाए जाते हैं, तब किससे और उम्मीद की जा सकती है। दिक्कत यह भी है कि सिविल सोसायटी की भी भूमिका निष्पक्ष नहीं रह गई है। ऐसे हालात में जो तटस्थ हैं, वे आगे आएं तो ही बात बन सकती है। इसलिए मसला आज का या गए वक्त के लिए नेताओं के जहरीले बोलों से लेकर सोशल मीडिया में परोसे जा रहे भड़काऊ आडिओ-वीडिओ की पड़ताल करने का है।

उस पर कैसे रोक लगे, इसके लिए एक व्यापक जनसमूह की जरूरत होगी। हालांकि इस रोजमर्रा की जद्दोजहद में यह कोशिश शुरू भी हो यह बड़ा सवाल है। फिर भी राह यही एक बचती है। वैसे दिल्ली विधानसभा चुनाव में बयानबाजी का केंद्र बने शाहीन बाग में बीते रविवार सुबह जोरदार हंगामा शुरू हो गया। सड़क खुलवाने के लिए लोग वहां उतर आए। ये लोग सीएए-एनआरसी के खिलाफ पिछले 50 दिनों से धरना दे रहे लोगों के खिलाफ हैं। ज्यादातर लोग खुद को आसपास का ही बता रहे थे, जिन्हें पिछले 50 दिनों से बंद सड़क की वजह से परेशानी उठानी पड़ रही है। शाहीन बाग में शनिवार शाम एक शस ने गोलियां चला दीं थीं। दोनों गोलियां हवा में चलाई गई थीं। फायरिंग की आवाज सुन मौके पर अफरा-तफरी मच गई। हालांकि पुलिस ने स्थानीय लोगों की मदद से उसे तुरंत गिरतार कर लिया। आसपास के लोगों ने बताया कि पुलिस जब उसे ले जा रही थी, तो वह जय श्रीराम के नारे लगा रहा था।

जब लोगों ने उससे पूछा कि ऐसा क्यों किया, तो उसने कहा कि हमारे देश में किसी और की नहीं चलेगी। सिर्फ हिंदुओं की चलेगी। अब तक बातचीत से परहेज करने वाली मोदी सरकार भी प्रदर्शन कर रहे लोगों से बात करने को तैयार हो गयी। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद का इस पर बयान आया कि सरकार शाहीन बाग में प्रदर्शन कर रहे लोगों से बातचीत को और उनकी शंकाओं को दूर करने को राजी हैं। लेकिन इसके साथ रविशंकर ने एक और बात कही। वह बोले कि ऐसा तब ही होगा जब शाहीन बाग के लोग भी बातचीत को तैयार होंगे। बात कौन करे, एक पेंच यह भी है। आंदोलन के पीछे वाले जो चेहरे हैं वे सामने आना नहीं चाहते क्योंकि कोशिश इस आंदोलन को स्वत: स्फूर्त साबित करने की है ताकि असल एजेंडा सामने ना आ सके। बावजूद इसके देश के कई हिस्सों में इसी तर्ज पर चल रहे धरने को समाप्त किए जाने की सत जरूरत है। जो धरने में शामिल हैं या फिर जिन्हें आवागमन में परेशानी होती है उसे ध्यान में रखते हुए सरकार को संवाद का रास्ता निकालना चाहिए।

प्रमोद कुमार सिहं
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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