अमेरिका ने नाक कटवाई

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अफगानिस्तान में अमेरिका सेना की मौजूदगी में तालिबान ने साा कजा ली। अमेरिकी सेनाओं के पूरी तरह अफगानिस्तान खाली करने से पहले ही तालिबान ने अफगानिस्तान को अपने कजे में ले लिया। काबुल बिना किसी खून खराबे के हथियाया। अफगानी सैनिक कहीं नजर नहीं आए। साा का भी तालिबान को हस्तानांतरण हो गया। कहा तो ये भी जा रहा है कि तालिबान को अमेरिका का हथियारों का बड़ा जखीरा हाथ लगा है। काबुल से आ रहे समाचार अच्छे नही हैं। ऐसे में काबुल में हर एक को अपनी जान बचाने की पड़ी है। अधिकांश विदेशी और अमेरिका का समर्थन करने वाले और सहयोग करने वाले अपनी जान बचाने के लिए चिंतित है। वे जानते है कि तालिबानी उन्हें बख्शेंगे नही। काबुल में अफरातफरी है। अमेरिका ने सोच था तालिबान को काबुल फतह करने में 90 दिन लगेंगे,लेकिन इतनी जल्दी कजा हो जाएगा, ये किसी को भी गुमान नही था।

अमेरिका द्वारा ट्रेंड अफगानिस्तान की फ़ौज हथियार डालकर आत्मसमर्पण कर देंग, ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता । दरअसल, अमरीका के अफगानिस्तान छोडऩे के घोषणा के साथ वहां का शासन औऱ सेना का मोरल गिर गया। वह पूरी तरह से टूट गयी। अमेरिका की अफगानिस्तान छोडऩे की घोषणा के साथ ही वहां के सैनिकों का मॉरल डाउन हो गया था। युद्ध में सबसे बड़ा हथियार आत्मविश्वास है। जिस देश के शासक औऱ सेना ने आत्मविश्वास खो दिया, वह कब तक वहां का विजेता रहती । उसे तो हथियार डालने ही थे। सबसे बड़ी चीज है देखने में आ रही है कि अफगानिस्तान के अधिकांश प्रदेशों के राजनयिक और पुलिस बल अमेरिका के अफगानिस्तान से जाने की घोषणा करने के बाद तालिबान से मिल गए। ऐसा होने पर तालिबान को न कुछ करना पड़ा।

ना उससे उससे जाकर मिलने वाले अफगान के अधिकारियों और पुलिस जवानों को ही को परेशानी उठानी पड़ेगी। काबुल में तो एक भी गोली नही चली । तालिबान काबिज हो गया। सेना खुद अपने हथियार तालिबान को सौंप रही है। तालिबान युग लौट आया ऐसा सोचा भी नहीं गया था। अब क्या क्या जुल्म वहां होंगे ,इसकी कल्पना में ही रोंगटे कांपने लगते हैं। उसके पुराने आदिम युग से अफगानिस्तान के भविष्य की कल्पना ही की जा सकती है। इस पूरे प्रकरण में सबसे बड़ी किरकिरी अमेरिका की हुई है। जैसे वह अफगानिस्तान से भागा, ऐसे ही पीठ दिखाकर वियतनाम से भागा था । अफगानिस्तान में अकेले अमेरिका के साथ ऐसा नहीं हुआ,उससे पहले रूस के साथ भी ऐसा हुआ था। रूस भी लंबी जंग लडऩे के बाद यहां से पीछे हटना पड़ा। वह तो अपने हथियार और गोलाबारुद भी छोड़कर भागा था।

अब अमेरिका फ़ौज की मौजूदगी में कजा हुआ यह बहुत शर्म की बात है। अफगानिस्तान की लड़ाई और उसके पतन में एक बात साफ निकल कर आयी कि संयुक्त राष्ट्र संघ एक हाथी के दांत की तरह दिखावटी है । उसकी कुछ क्षमता नहीं।कोई ताकत नही।शक्ति सम्पन्न बडे देख उसे अपने पक्ष में मोडऩे में सक्षम हैं। जहां उनकी नहीं चलती,उसे रोकने को उनके पास वीटो पावर है। अफगानिस्तान के पतन से अब संयुक्त राष्ट्र संघ के औचित्य पर सवाल उठ रहे हैं।संयुक्त राष्ट्रसंघ कुछ कर नहीं सकता । उसमें विचार चलता रहा , दोहा में समस्या के हल पर बड़ी शक्तियां विचार करती रहीं और तालिबान का काबुल पर कबजा हो गया।

सभी वीटो पावर का अधिकार रखने वाले सभी देश अफगानिस्तान में मानवाधिकारों का उल्लंघन होते देखते रहे और कुछ भी नही कर सके। संयुक्त राष्ट्र संघ अपने सदस्य देशों में शांति कायम रखने ,आपातकाल में वहां के प्रशासन से सहयोग करने के लिए बना है ,लेकिन यहां कर वह फेल हो गया। अफगानिस्तान की सीमा पर बैठी रूस , चीन जैसी महाशक्तियां तालिबान से भयभीत हो उनसे समझौते पर उतर आईं। पाक पहले ही तालिबान के पीछे खड़ा है।अमेरिका भी हाल में इसी रास्ते की और बढ़ रहा था। सब अपनी बचाने में लगे हैं।अफगानिस्तान और उसकी जनता को बचाने से किसी का लेना देना नही।

अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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