विकास को लेकर वर्तमान सरकार नई और बड़ी लकीर खींचने का दावा लगातार कर रही है, लेकिन उन दावों पर सवाल खड़े करने वाले नए-नए तथ्य भी सामने आते जा रहे हैं। ये तथ्य गैरसरकारी ही नहीं, सरकारी स्रोतों से भी आ रहे हैं। हाल ही नीति आयोग ने सतत विकास लक्ष्य की 2019 की प्रगति रिपोर्ट जारी की है जिससे पता चलता है कि देश के 25 राज्यों-केंद्र शासित प्रदेशों में गरीबी, भुखमरी और असमानता बढ़ गई है। यह बात इस वजह से भी हैरान करने वाली है कि इसके पहले 2005-06 से 2015-16 के दस वर्षों में गरीबों की संख्या में गिरावट आई थी।
साफ है, विकास के दावे इस हकीकत को नहीं बदल सकते कि आर्थिक विषमता के मोर्चे पर स्थिति में कोई सुधार नहीं हो रहा। भले फोर्ब्स सूची में भारतीय अमीरों की संख्या बढ़ी है, पर सब कुछ एकतरफा है। एक समय देश की राजनीति में आर्थिक विषमता को लेकर जो बहस होती थी, उसे 1990 के बाद से ही कूड़ेदान में डाल दिया गया। देश के हर मुख्यमंत्री की जुबान पर अब ग्रोथ की बात रहती है। हालांकि मजबूत राजनीतिक स्थिरता और राष्ट्रवादी नेतृत्व होने के बावजूद देश में पेट न भर पाने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। गौर करने की बात है कि तेज आर्थिक वृद्धि दर के दौर में पूंजीपतियों ने तो काफी तरक्की की, लेकिन एक बड़ा तबका पिछड़ता चला गया। ऐसा नहीं है कि हमने भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए सामाजिक योजनाएं नहीं बनाई हैं। वर्ष 2013 में खाद्य सुरक्षा कानून बनाया गया। लेकिन, तमाम प्रयासों के बावजूद ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट भारत के दावों को खारिज करती है। दरअसल, भुखमरी की समस्या आर्थिक असमानता से जुड़ी हुई है। अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई ने गरीबों को भोजन जैसी बुनियादी आवश्यकता से भी दूर कर दिया है। बढ़ती विषमता का एक नतीजा यह भी है कि गरीब और वंचित आबादी हमारी प्राथमिकता में नीचे चली गई। लिहाजा उस तक जरूरी चीजें पहुंचाने की चिंता भी कम हो गई। यह स्थिति सिर्फ भारत में नहीं अन्य देशों में भी है। इसीलिए हम देखते हैं कि जहां दुनिया में एक बड़ी आबादी भोजन नहीं जुटा पाती, वहीं हर साल एक अरब टन से ज्यादा भोजन बर्बाद हो जाता है।
जहां तक भारत की बात है तो अर्थव्यवस्था की कमजोर हालत पिछले कुछ समय की बात है। इससे पहले हालात अलग थे। बीते एक दशक में देश की आर्थिक विकास दर काफी ऊंची रही। इसी का नतीजा था कि उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश के रूप में दुनिया भर में अपनी पहचान बनाने वाले भारत के बारे में यह कहा जाने लगा कि वह जल्द ही एक आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहा है। लेकिन अक्सर तरक्की की तस्वीर पेश करते वक्त गरीबी और भुखमरी जैसे पहलुओं को अनदेखा कर दिया जाता है। शायद इसी वजह से यह तथ्य पर्याप्त ध्यान नहीं खींच पाया कि भारत के लोग अरबपतियों की लिस्ट में शुमार हो रहे हैं तो इसी देश के लोग भूख से तड़पकर जान देने को भी विवश हैं। मगर हमारे न देखने से सचाई बदल नहीं गई। यह सचाई विकास के पथ पर तेज रफ्तार वाले दौर में भी देश के माथे पर कलंक के रूप में चमकती रही। अब जब कई वजहों से हमारी रफ्तार कम हुई है तब भी यह हमारी विकास प्रक्रिया की सार्थकता पर सवाल बनी हुई है। जाहिर है विकास की गति तेज करने की चुनौती से कम बड़ी नहीं है गरीबी, भुखमरी, कुपोषण जैसी समस्याओं से मुक्त होने की चुनौती। अब और इस तथ्य से मुंह नहीं चुराया जा सकता कि जो भारत वैश्विक आर्थिक शक्ति बनने का सपना देख रहा हो और उस सपने को सच करने में जुटा हो उसे पहले भूख पर विजय प्राप्त करनी होगी। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि भारत में एक भी व्यक्ति भूखा नहीं सोए। और यह तब तक सुनिश्चित नहीं हो सकता जब तक खाद्य उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ उसे हर जरूरतमंद तक सही वक्त पर पहुंचाने की अचूक व्यवस्था निर्मित करने पर भी ध्यान न दिया जाए।
(लेखक रवि शंकर स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)