गीता में भगवान कृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि व्यक्ति कर्म किए बिना एक क्षण नहीं जी सकता। कभी-कभी हमारा शरीर कुछ नहीं करता। लेकिन यह नेत्र इंद्रिय बहुत कुछ देखने का कर्म करती है। हाथ गतिविधियां करते रहते हैं। कान कई आवाज़ें सुनते रहते हैं। चलो माना, हम आंखें, कान, जुबां बंद कर दें, हाथ-पैर हिलाना बंद कर दें। लेकिन इन सभी इंद्रियों को प्रेरित करनेवाला मन कहां कर्ममुक्त रह सकता है?
कितने विचार मन में चलते ही रहते हैं! हमारी बुद्धि पता नहीं, क्या-क्या कर्म करती रहती है? हमारा चित्त और अहंकार भी पता नहीं, क्या-क्या उहापोह करता रहता है? भगवान कृष्ण ने कुछ सात्त्विक, राजसी और तामसी कर्म गिनाए हैं। ‘योगः कर्मसु कौशलम्।’ भगवद्गीता का एक वाक्य भगवान योगेश्वर श्री कृष्ण का। ‘सहजं कर्म कौन्तेय।’ हे अर्जुन, तू सहज कर्म कर। सहज कर्म करते हुए भी यदि उसमें कोई दोष भी है तो भी तू बंधेगा नहीं। कितना बड़ा आश्वासन! सहज कर्म। जैसे सांस चलती है।
अब कर्म को योग कैसे बनाएं, यज्ञ कैसे बनाएं? हमारा हर कर्म यज्ञ हो जाए। हमारा प्रत्येक कर्म यज्ञ बन जाता है यदि अहंता और ममता को छोड़कर किया जाए। ममता को छोड़ने का मतलब ये मेरे लिए नहीं है, ‘न मम।’ इस समष्टि के लिए है। जैसे आप जानते हैं, मैं यज्ञ करता रहता हूं, तो मैंने घी आहुत किया, जव-तल डाला, मंत्र बोला, लेकिन जब यज्ञ की जो पवित्र सिराएं उठती हैं, वे मेरी नहीं रहतीं। यह उजाला सबका हो जाता है। ‘न मम ।’ अहंता और ममता के बिना किया हुआ प्रत्येक कर्म यज्ञ है। दूसरा सूत्र, कोई भी कर्म किसी के साथ स्पर्धा में रहकर न करो, श्रद्धा से करो। श्रद्धा से किया हुआ कर्म यज्ञ बन जाता है। स्पर्धा में एक घोड़ा थोड़ा आगे निकल गया। एक टीम ने ज्यादा रन बना लिए, जय जयकार हो गई। मैं ‘जय’ और ‘विजय’ अलग करके आपसे बात करना चाहूंगा कि स्पर्धा से किया गया कर्म जय तो देता है, विजय नहीं देता।
विजय तो देता है श्रद्धा से किया हुआ कर्म। इससे भी सरल करूं, कर्म नीति से करो। जो भी कर्म करो, नीति और प्रामाणिकता से करो, बस यज्ञ हो जाएगा। थोड़ी कमाई भले कम हो; थोड़ा लाभ कम हो। बहुत बड़ा लाभ परमात्मा ने दिया है, मानव तन। तीन ही सूत्र याद रखें। कर्म नीति, रीति और प्रीति से करें। जो कर्म जिस ढंग से करना चाहिए उसी ढंग से करें। उसकी एक रीत होती है, एक पद्धति होती है, उसी पद्धति से चलें। एक रेखा है उसकी; एक विवेकपूर्ण मर्यादा है। और कर्म प्रीति से, प्रेम से करें। एक शिक्षक पढ़ाने का कर्म प्रेम से करे। किसान प्रेम से बीज बोए। तीसरी बात, भगवान कृष्ण के शब्दों का आश्रय करें। ‘निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्’ अर्जुन, तू इसका निमित्त है। तुझे नियति कराएगी ही। निमित्त बन। भाग नहीं, जाग। हमारा कर्म यज्ञ बन जाएगा, जब हम निमित्त बनकर करेंगे, नमित बनकर नहीं। किसी के दबाव में नहीं। मुझे इस कर्म के लिए परमात्मा ने निमित्त बनाया है तो मैं निमित्त बनकर कर्म करूं। निमित्तमात्र होकर किया गया कर्म यज्ञ है।
बदला लेने की भावना से किया गया कोई भी कर्म बंधन है। बलिदान की भावना से किया कर्म यज्ञ है। बलिदान यानी हम बदला न लें। दक्ष ने ‘मानस’ में यज्ञ किया क्योंकि शिव से नाराज़ थे; एक बदला लेने के लिए। दक्ष का यज्ञ कर्मयज्ञ नहीं रहा। विफल हो गया। यह अध्यात्म की केवल ऊंची-ऊंची बातें नहीं हैं। यह जीवन में पल-पल जीने की बात है। फिर आसक्तिमुक्त होकर कर्म करें। यानी आसक्त न हो जाएं कि मैं करूंगा ही, करता ही रहूंगा, मुझे ये करना ही है। हुआ, हुआ, सहज; न हुआ, न हुआ। भगवान कृष्ण का प्रसिद्ध कथन है। ‘मा फलेषु कदाचन।’ तेरा अधिकार मात्र कर्म में है, फल में नहीं। और जिस कर्म का फल न मिले, तो उसे कौन करेगा? जिस धंधे में फायदा न हो तो कौन व्यापारी ऐसा उसे करेगा? और भगवान कृष्ण कहते हैं, फलाकांक्षा छोड़।
इसपर कई विचारकों ने चर्चाएं की हैं। मैं तो इतना ही कहता हूं कि फल के लिए हम कर्म न करें, रस के लिए करें। फल ना मिले, मैं करूं, बस। और फल मिल भी जाए तो कर्म का परिणाम तो आता ही है। भला-बुरा जो भी मिले। बुरा फल आए, खुद भोग लें। भला परिणाम आए, बांटकर खाएं। ‘तेन त्यक्तेन भुंजिथाः।’ ये हमारी औपनिषदीय विचारधारा है। ‘त्यागीने भोगवी जाणो।’ हमारी उपनिषद की ये सारभूत बातें है।
मोरारी बापू
(आध्यात्मिक गुरु और राम कथाकार)